Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ११ :
[४२] हारना मोतीना द्रष्टांते क्रमबद्धपर्यायनी समजण; अने ज्ञानने सम्यक करवानी रीत.
प्रवचनसारनी ९९ मी गाथामां लटकता हारनुं द्रष्टांत आपीने उत्पाद–व्यय–धु्रव सिद्ध कर्या छे, तेमां पण
क्रमबद्धपर्यायनी वात आवी जाय छे. जेम लटकता हारमां दरेक मोती पोतपोतानां स्थानमां प्रकाशे छे, तेमां
पछी पछीना स्थाने पछी पछीनुं मोती प्रकाशे छे ने पहेला पहेलाना मोतीओ प्रकाशता नथी; तेम लटकता
हारनी माफक परिणमता द्रव्यमां समस्त परिणामो पोतपोताना अवसरोमां प्रकाशे छे; तेमां पछी पछीना
अवसरोए पछी पछीना परिणामो प्रगट थाय छे ने पहेला पहेलाना परिणामो प्रगट थता नथी. (जुओ गाथा
९९ नी टीका) लटकता हारना दोरामां तेनुं दरेक मोती यथास्थाने क्रमबद्ध गोठवायेलुं छे, जो तेमां आडुंअवळुं
करवा जाय–पांचमा नंबरनुं मोती त्यांथी खसेडीने पचीसमा नंबरे मूकवा जाय –तो हारनो दोरो तूटी जशे
एटले हारनी सळंगता तूटी जशे. तेम जगतना दरेक द्रव्यो झूलता एटले के परिणमता छे. अनादि अनंत
पर्यायरूप मोती क्रमबद्ध गोठवायेला छे, तेने न मानतां एकपण पर्यायनो क्रम तोडवा जाय तो गुणनो ने
द्रव्यनो क्रम तूटी जशे, एटले के श्रद्धा ज मिथ्या थई जशे. हुं तो ज्ञायक छुं, हुं निमित्त थईने कोईनी पर्यायमां
फेरफार करी दउं एवुं मारुं स्वरूप नथी–एम ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत वडे अकर्तापणुं थई जाय छे अर्थात्
सम्यग्ज्ञान थाय छे, अने ते ज जीव स्व–परप्रकाशक ज्ञान वडे आ क्रमबद्धपर्यायने यथार्थ पणे जाणे छे. आ रीते
हजी तो ज्ञानने सम्यक् करवानी आ रीत छे; आ समज्या वगर सम्यग्ज्ञान थाय नहि.
[४३] ज्ञायकभावनुं परिणमन करे ते ज साचो श्रोता.
आ क्रमबद्धपर्यायना विषयमां अत्यारे घणी गरबड जागी छे तेथी अहीं तेनुं विशेष स्पष्टीकरण थाय
छे. हजी तो आ वातना श्रवणनो पण जेने प्रेम न आवे ते अंतरमां पात्र थईने परिणमावे क्यांथी? अने
एकला श्रवणनो प्रेम करे पण जो स्वछंद टाळीने अंतरमां ज्ञायक भावनुं परिणमन न करे तो तेणे पण
खरेखर आ वात सांभळी नथी. ए ज वात समयसारनी चोथी गाथामां आचार्यदेवे मूकी छे, त्यां कह्युं छे के
एकत्व–विभक्त शुद्धात्मानुं श्रवण जीवे पूर्वे कदी कर्युं नथी; अनंतवार साक्षात् तीर्थंकर भगवानना
समवसरणमां जईने दिव्यध्वनि सांभळी आव्यो, छतां आचार्यभगवान कहे छे के तेणे शुद्धात्मानी वातनुं
श्रवण कर्युं ज नथी.–केम? कारण के अंतरमां उपादान जागृत करीने ते शुद्धात्मानी रुचि न करी तेथी तेने
श्रवणमां निमित्तपणुं पण न आव्युं.
[४४] ज्यां स्वछंद छे त्यां क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा नथी, साधकने ज क्रमबद्धपर्यायनी खरी
श्रद्धा छे.
प्रश्न:– क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा थाय पण पर्यायना क्रममांथी स्वछंद न टळे तो?
उत्तर:– एम बने ज नहि, भाई! क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा करे तेने पर्यायमां स्वछंदनो क्रम रहे ज नहि,
केमके ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने तेणे ते प्रतीत करी छे. ज्ञानस्वभावनी ओळखाणना पुरुषार्थ विना एकली
क्रमबद्धपर्यायनुं नाम ल्ये, तेनी अहीं वात नथी, केमके ज्ञानस्वभावनी ओळखाण वगर ते क्रमबद्धपर्यायने पण
समज्यो नथी. ज्ञानस्वभाव तरफ वळीने क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत करी त्यां तो अनंत गुणोनो अंश निर्मळरूपे
परिणमवा मांडयो छे; श्रद्धामां सम्यग्दर्शन थयुं ज्ञानमां सम्यग्ज्ञान थयुं; आनंदना अंशनुं वेदन थयुं, वीर्यनो
अंश स्व तरफ वळ्‌यो, ए रीते बधा गुणोनी अवस्थाना क्रममां निर्मळतानी शरूआत थई गई. हजी जेने
श्रद्धाज्ञान सम्यक् थया नथी, आनंदनुं भान नथी, वीर्यबळ अंतरस्वभाव तरफ वळ्‌युं नथी, तेने
क्रमबद्धपर्यायनी खरी प्रतीत नथी. क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीतनी साथे तो स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ छे, श्रद्धा–ज्ञान
सम्यक थया छे, आनंद अने वीतरागनो अंश प्रगट थयो छे, एटले त्यां स्वछंद तो होतो ज नथी. साधकदशामां
अस्थिरतानो राग आवे पण त्यां स्वछंद तो होतो ज नथी. अने जे राग छे तेनो पण परमार्थे तो ते ज्ञानी
ज्ञाता ज छे. आ रीते आमां भेदज्ञाननी वात छे. सम्यग्दर्शन कहो, भेदज्ञान कहो, के ज्ञायकभावनो पुरुषार्थ
कहो, के क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत कहो–ए बधुं भेगुं ज छे. क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धावाळाने हठ पण नथी रहेती तेम
ज स्वछंद पण नथी रहेतो. सम्यक्श्रद्धा थवा भेगुं ज तेणे ते क्षणे ज