Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १०६ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
४४ ‘पर्याये पर्याये ज्ञायकपणानुं ज काम.’ ७४ ‘व्यवहारनो लोप!!’ –पण कया व्यवहारनो? अने कोने?
४५ मूढ जीव जेम आवे तेम बके छे. प्रवचन पांचमुं
४६ अज्ञानीनी घणी ऊंधी वात; ज्ञानीनी अपूर्व द्रष्टि.
४७ ‘मूरख........’
७५ क्रमबद्धपर्याय कयारनी छे? –अने ते निर्मळ क्यारे थाय?
४८ ऊंधी मान्यतानुं जोर!! – (तेना चार दाखला). ७६ क्रमबद्धपर्यायना निर्णयनुं मूळ.
४९ ज्ञायक सन्मुख था! –ए ज जैनमार्ग छे.
७७ अत्यारे पर्यायनुं परमां ‘अकर्तापणुं’ सिद्ध करवानी
प्रवचन त्रीजुं मुख्यता छे, निरपेक्षपणुं सिद्ध करवानी मुख्यता नथी.
५० सम्यग्द्रष्टि–ज्ञाता शुं करे छे? ७८ साधकने चारित्रनी एक पर्यायमां अनेक बोल; तेमां वर्ततुं
५१ निमित्तनुं अस्तित्व कार्यनी पराधीनता नथी सूचवतुं. भेदज्ञान; अने तेना द्रष्टांते निश्चय व्यवहारनो जरूरी खुलासो.
५२ श्रीरामचंद्रजीना द्रष्टांते धर्मीना कार्यनी समजण.
७९ क्रमबद्धपर्यायनी ऊंडी वात.
५३ आहारदानप्रसंगना द्रष्टांते ज्ञानीना कार्यनी समजण. ८० ‘मोतीनो शोधक’ ऊंडा पाणीमां उत्तरे छे;–तेम ऊंडे
५४ रामचंद्रजीना वनवासना द्रष्टांते ज्ञानीना कार्यनी समजण. ऊतरीने आ वात जे समजशे ते न्याल थई जशे!
५५ ज्ञानी ज्ञाता रहे छे, अज्ञानी रागनो कर्ता थाय छे, ने ८१ केवळज्ञाननो कक्को.
परने फेरववा मांगे छे.
८२ क्रमबद्धपर्याय ते वस्तुस्वरूप छे.
५६ जैनना लेबासमां बौद्ध. ८३ क्रमबद्धपर्यायमां निश्चयव्यवहारनी संधि, निमित्त–नैमित्तिकनी
५७ साचुं समजनार जीवनो विवेक केवो होय? संधि, वगेरे बाबतनो जरूरी खुलासो; अने ते सबंधमां
५८ पोतानी पर्यायमां ज पोतानो प्र... भाव छे. स्वछंदीओनी विपरीत कल्पनाओनुं निराकरण.
५९ क्रमबद्धना नामे मूढ जीवना गोटा. ८४ ज्ञा.... य.... क शुं करे?
६० ज्ञायक अने क्रमबद्धनो निर्णय करीने स्वाश्रयनुं परिणमन ८५ ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक चरणानुयोगनी विधि.
थयुं तेमां व्रतप्रतिक्रमण वगेरे बधुं जैनशासन आवी ८६ साधक दशामां व्यवहारनुं यथार्थ ज्ञान.
जाय
छे. ८७ ‘केवळीना ज्ञानमां बधी नोंध छे’ परने जाणवानुं ज्ञाननुं
६१ ‘अभाव, अतिभाव (–विभाव), अने स्वभाव.’ सामर्थ्य छे ते कांई अभूतार्थ नथी.
६२ अज्ञानीओ विरोधनो पोकार करे तो, करो–तेथी तेमनी ८८ भविष्यनी पर्याय थया पहेलां केवळज्ञान तेने कई रीते
मान्यता मिथ्या थशे, पण कांई वस्तुनुं स्वरूप नहीं फरे! जाणे? –तेनो खुलासो.
प्रवचन चोथुं ८९ केवळीने क्रमबद्ध, ने छद्मस्थने अक्रमद्ध–एम नथी.
६३ क्रमबद्धमां ज्ञायक सन्मुख निर्मळ परिणमननी धारा ९० ज्ञान अने ज्ञेयनो मेळ, –छतां बंनेनी स्वतंत्रता
वहे–एनी ज मुख्य वात छे.
९१ आगमने जाणशे कोण?
६४ ज्ञायकभावना क्रमबद्ध परिणमनमां सात तत्त्वोनी प्रतीत. ९२ केवळज्ञानना ने क्रमबद्धपर्यायनां निर्णय विना
६५ अज्ञानीने सात तत्त्वोमां भूल.
धर्म केम न थाय?
६६ भेदज्ञाननो अधिकार. ९३ तिर्यंच–समकीतिने पण क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत.
६७ ‘क्रमबद्धपर्याय’ नी उत्पत्ति पोतानी अंतरंग योग्यता ९४ क्रमबद्धपर्यायना निर्णयनुं फळ– ‘अबंधपणुं’
सिवाय बीजा कोई बाह्यकारणथी थती नथी.
“ज्ञायकने बंधन नथी.”
६८ निमित्त अने नैमित्तिकनी स्वतंत्रता. ९५ स्वछंदी जीव आ वातना श्रवणने पण पात्र नथी.
६९ ज्ञायकद्रष्टिमां ज्ञानीनुं अकर्तापणुं. ९६ सम्यग्दर्शन क्यारे थाय? –के पुरुषार्थ करे त्यारे!
७० जीवना निमित्त विना पुद्गलनुं परिणमन. ९७ क्रमबद्धपर्याय अने तेनुं कर्तापणुं.
७१ ज्ञायकभावपणे ऊपजतो ज्ञानी कर्मनो ९८ झीणुं–पण समजाय तेवुं!
निमित्तकर्ता पण नथी.
७२ ज्ञानीने केवो व्यवहार होय? –ने केवो न होय? ९९ साचो विसावो.....
७३ मूळभूत ज्ञानकळा, –ते केम ऊपजे? १०० समकीति कहे छे–“श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे.”
१०१ “केवळज्ञानना कक्का’ ना तेर प्रवचनो.... अने
केवळज्ञान साथे संधिपूर्वक तेनुं अंतमंगळ.