: ૧૪૦ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ફાગણ : ૨૦૧૧ :
×××जैनदर्शनने इस सत्य को समझा और इसीलिये उसने विविध विचारों का समीक्षण और समन्वय करने के लिये
सम्यग्ज्ञान की प्ररूपणा में नयवाद की प्राणप्रतिष्ठा की है।××× पर इसका यह अर्थ नहीं कि यह नयद्रष्टि से सर्वथा कल्पित
द्रष्टिकोणों को भी स्वीकार करता है।×××वह तो वस्तुस्पर्शी जितने भी विकल्प हैं उन्हें ही अपेक्षाभेद से स्वीकार करता है।
[,, पृ. ६१–६२]
नय यह मानसिक विकल्प है..............इस हिसाब से नय के सामान्य लक्षण की मीमांसा करने पर वह विवक्षित एक
धर्म द्वारा वस्तु का सापेक्ष निरूपण करनेवाला विचार ठहरता है। [, ––पृ. ६२]
[९] तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
प्रमाणनयैस्तत्त्वाधिगमसिद्धेः
प्रमाण और नयों के द्वारा तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होना सिद्ध है। [भावार्थ] लोक में पदार्थों के परिज्ञान में प्रमाण और
नय विकल्पों का ही आश्रय लिया जाता है। अथवा पदार्थों का सम्यग्ज्ञान सकलादेश व विकलादेश के बिना अन्य प्रकार से हो
ही नहीं सकता। है। इसलिए तत्त्वपरीक्षकों को प्रमाणनय विकल्पों से सिद्ध तत्त्वों को अंगीकार करना ही पड़ता है।
[–पं. माणेकचन्दजीवाला तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पुस्तक १ पृ. ६३१]
× × ×वस्तुअंश को विकलादेशद्वारा जाननेवाले श्रुतज्ञानांशरूप नयोंसे सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादि संपूर्ण पदार्थों
का निर्णय होता है।
कोई भव्य कहता है कि वह अधिगम उन प्रमाण नयों करके कैसे करना चाहिये? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य उत्तर
कहते हैं–
सूत्रे नामादिनिक्षिप्त तत्त्वार्थाधिगमस्थितः।
कार्त्स्न्यतो देशतो वापि स प्रमाणनयैरिह।।
पूर्व सूत्रमें नाम आदिक के द्वारा निक्षिप्त किये तत्त्वार्थों का संपूर्णरूप से अधिगम होना प्रमाणों करके, और एकदेशसे
अधिगम होना भी नयों करके व्यवस्थित हो रहा है।
[–पं. माणिकचंदजीवाला तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पुस्तक २ पृ. ३१६–३१७]
नयज्ञान से, वस्तु के संपूर्ण अंशों को कहनेवाला प्रमाणज्ञान अधिक पूज्य माना गया है।
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३२०]
न हि प्रकृष्टां विशुद्धिमन्तरेण प्रमाणमनेकधर्मधर्मि स्वभावं सकलामर्थमादिशति, नयस्यापि सकलदेशित्वप्रसंगात्। नापि
विशुद्ध्यपकर्षणमन्तरेण नयो धर्ममात्रं वा विकलमादिशति प्रमाणस्य विकलादेशित्व प्रसंगात्।
भावार्थः जैसे विशिष्ट प्रकाश होने के कारण सूर्य अनेक पदार्थों का प्रकाश कर देता है और मंदज्योति होनेके कारण
प्रदीप अल्प पदार्थों का प्रकाशक है। तिसी प्रकार ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ प्रमाणज्ञान सकलादेशी होने
के कारण पूज्य है। और ज्ञानावरण के साधारण क्षयोपशम से या विशिष्ट जातिके छ़ोटे क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ नयज्ञान ×××।
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३२०–३२१]
स्वार्थ निश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत्।
स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः।।४।।
कोई कहते हैं कि सभी ज्ञान जब अपना और अर्थका निश्चय कराते हैं। प्रमाण के समान नय भी एक ज्ञान है, तब तो
अपना और अर्थका निश्चय करानेवाला होने के कारण नयज्ञान भी प्रमाण हो जावेगा। ग्रंथकार समझाते हैं कि इसप्रकार
किसीका कहना समीचीन नहीं है। क्योंकि नयका लक्षण अपना और अर्थ का एकदेशरूप से निर्णय करना है, ऐसा पूर्व
आचार्योंकी परिपाटी से स्मरण होता चला आया है। तथा अपने को और अर्थ को एक देशरूप से जानना नय का लक्षण आर्ष
आम्नाय अनुसार मानते आये हैं। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३२१]
अपना और अर्थका एकदेशसे निर्णय करना नयका लक्षण है [,, ,, पृ. ३२२]
नयद्वारा विषय किया गया वस्तु का अंश न तो पूरा वस्तु है और वस्तु से सर्वथा पृथक् अवस्तु भी नहीं कहा जा
सकता है, किन्तु वस्तु का एकदेश है। जैसे कि समुद्र का एक अंश या खणड बिचारा पूर्णसमुद्र नहीं है, और घट या नदी,
सरोवर के समान वह असमुद्र भी नहीं है, किन्तु वह समुद्र का एक अंश कहा जाता है। × × × तिसी प्रकार नय का गोचर स्व
और अर्थ का एकदेश भी पूरा वस्तु नहीं है। × × × तथा नयसे जान लिया गया स्वार्थका अंश अवस्तु भी नहीं है × × × × ×
तब तो फिर नय के द्वारा जाना गया स्वार्थांश क्या है? आप जैन ही बतलाइये। इसका उत्तर यह है कि वह वस्तु का अंश ही
है। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३२२–३२३]