Atmadharma magazine - Ank 137
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955).

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: ફાગણ : ૨૦૧૧ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ૧૪૧ :
× × × वस्त्वंश एव तत्र च प्रवर्तमानो नयः।
××× उसमें (वस्तुके अंशमें) प्रवर्त रहा स्व और अर्थके एकदेशका निर्णय स्वरूप नय ज्ञान है। (भावार्थ) स्व और
अर्थके एकदेशको निर्णय करनेवाला वस्त्वंशग्राही नय होता है। (,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवर्तिक पु.. पृ. ३६०)
धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः।
प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः।।२०।।
× × × प्रमाण से भिन्न नयज्ञान है [भावार्थ] अंशी को प्रधान और अंश को गौण, या अंशोंको प्रधान अंशी को गौणरूप
से जाननेवाला ज्ञान नय है और अंश अंशी दोनों को प्रधानरूपसे जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है।
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ३६१–३६२]
गौण हो रहे हैं अंश जिसके ऐसे अंशीको विषय करनेवाला ज्ञान नय ही है। [,, ,, पृ. ३६२]
नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः।
स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः।।२१।।
नयज्ञान तो अप्रमाण है और न प्रमाणस्वरूप माना गया है। किन्तु वह ज्ञानस्वरूप होता हुआ प्रमाण का एकदेश तो हो
सकेगा। सभी प्रकारों से कोई विरोध नहीं है। विरोध यहाँ उपलक्षण है। साथमें कोई अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, संशय, व्यभिचार
आदि भी दोष नहीं आते हैं। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
. २ पृ. ३६२]
नयज्ञान प्रमाण का एकदेश है। [,, ,, पृ. ३६३]
वस्तु को संपूर्णरूप से प्रमाणज्ञान जानता है। प्रमाण से जान चुकने पर उस वस्तु के एक अंशमें नयज्ञान प्रवर्तता
है। [,, ,, पृ. ३६५]
न हि मत्यवधिमनःपर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन गृहीतस्यार्थस्यांशे नयाः प्रवर्तन्ते तेषां
निःशेषदेशकालार्थगोचरत्वात् मत्यादीनां तदगोचरत्वात्। नहि मनोमतिरप्यशेषविषया करण विषये तज्जातीये वा प्रवृतेः।
जो अर्थ मति, अवधि, और मनःपर्यय, इन तीन ज्ञानों में से किसी एक प्रमाण से भी ग्रहण कर लिया गया है। उस
अर्थ के अंशमें नयज्ञान नहीं प्रवर्तते हैं, क्योंकि वे नयज्ञान संपूर्ण देश, काल संबंधी अर्थके अंशों को विषय करते हैं।
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३६७]
परोक्षाकारतावृत्तैः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु।
श्रुतमूला नयाः सिद्धाः वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत्।।२७।।
तीनों काल संबंधी विषय हो रहे संपूर्ण पदार्थों के अंशोंमें प्रवृत्ति होने के कारण उन नयज्ञानों का मूल कारण
केवलज्ञान मान लिया जाय, यह भी युक्त नहीं है। क्योंकि अपने विषयों की परोक्ष (अस्पष्ट) रूपसे विकल्पना करते हुए
नयज्ञान वर्त रहे हैं। किन्तु केवलज्ञान का प्रतिभास तो स्पष्ट होता है। ××× नयज्ञान तो विषयों को विशद जानता नहीं है।
अतः परिशेषन्याय से श्रुतज्ञान को मूल कारण मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है।
[,, तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३६७]
श्रुतमूला नयाः सिद्धास्तेषां परोक्षाकारतया वृतेः।
××× श्रुतज्ञान को मूल कारण मानकर सिद्ध हो रहे नयज्ञान भी (आगे) कह दिये जावेंगे। × × ×
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ३६८।]
श्रुतज्ञान नामक प्रमाणज्ञान को मूलकारण माननेपर तो नयों का अस्पष्ट प्रतिभासीपने से कोई विरोध नहीं है। ×××
श्रुतज्ञान से जाने गये अंशको अविशदरूप जाननेवाले नयों × × × [,, त. श्लो. वा. पु. २ पृ. ३६८]
तत्प्रमाणान्नयाच्च स्यात्तत्त्वस्याधिगमोपरः।
स स्वार्थश्च परार्थश्च ज्ञानशब्दात्मकात्ततः।।४७।।
प्रमाण और नय से तत्त्वों का अधिगम होता है जो कि प्रमाण और नय से कथंचित भिन्न है। ज्ञानस्वरूप उन प्रमाण
और नयों से होता हुआ वह अधिगम स्वयं अपने लिये उपयोगी है। क्योंकि ज्ञानगुण आत्मामें ही जड़ा हुआ रहता है। तथा
वचनस्वरूप उन प्रमाण और नयोंसे हुआ अधिगम दूसरों के लिये उपयोगी है। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
. २ पृ. ३६६]
× × × श्रुतविषयैकदेशज्ञानं नयो × × ×
श्रुतज्ञानसे जाने गये विषय के एकदेशको जाननेवाला नय जो कि आगे कहा जायगा, वह भी ज्ञानस्वरूप तो स्वके
लिये है और शब्दस्वरूपनय दूसरे आत्माओं के प्रयोजन का साधक है। वचन को भी उपचारसे प्रमाण माना है।
[,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ४००]
छट्ठ सूत्रके सारांशमें टीकाकार पं. माणेकचन्दजी लिखते हैं कि–
नयज्ञान प्रमाणरूप नहीं है और अप्रमाण भी नहीं है, किन्तु प्रमाणभूत श्रुतज्ञान का एकदेश है।
तैसे ही नयका विषय भी वस्तु
(है) और अवस्तु न होकर वस्तु का एकदेश है।