: ૧૪૨ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ફાગણ : ૨૦૧૧ :
× × × श्रुतज्ञान अंशी होकर प्रमाण है। नय, उपनय, ये श्रुतज्ञान के अंश हैं।
(–देखो, पं. माणिकचन्दजी लिखित “छट्ठे सूत्रका सारांश” तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु. २ पृ. ४६० से ४६३)
[१०] सवार्थसिद्धि
एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशषादर्थावधारणं नय इति। सकलविषयत्वाच्च प्रमाणस्य। तथा चोक्तम्–
‘सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन। × × × पर्यायार्थिक नयेन भावतत्त्वमधिगन्तव्यम्।
प्रमाणसे ग्रहण करि भेदसे पदार्थ का निश्चय करना ऐसी नय है, और प्रमाण का सम्पूर्ण विषयभाव (धर्म और धर्मी)
है। [–श्री सर्वार्थसिद्धि पृ. ५७]
प्रमाणैकदेशाश्च नयाः = प्रमाणके एकदेश नय हैं (––श्री सर्वार्थसिद्धि पृ. ४६३)
[११] तत्त्वार्थवार्तिक
‘प्रमाण समुदाय को विषय करता है, तथा नय अवयवको।’ “४. ज्ञान स्वाधिगमहेतु होता है जो प्रमाण और
नयरूप होता है।” (तत्त्वार्थवार्तिक, हिंदीसार पृ. २८५)
[१२] तत्त्वार्थराजवार्तिक
× × ×્ર प्रमाण के विषयभूत पदार्थों को ही नय विषय करता है। (तत्त्वार्थ रा. वा. पृ. १५२)
जो अपने ही ज्ञान में कारण हो वह स्वाधिगम हेतु है इसलिये वह ज्ञानस्वरूप ही माना है और उसके एक प्रमाण
स्वाधिगम, दूसरा नयस्वाधिगम इस तरह दो भेद हैं। (तत्त्वार्थ रा. वा. पृ. १५३)
[१३] अर्थप्रकाशिका
नित्य अनित्यादिक अनेक धर्मनिसहित वस्तु प्रमाणके विषयके भावकूं प्राप्त होई हैं। बहुरि काहु एक धर्म की मुख्यता
लेय अवरोध साध्य पदार्थनिकुं जा करि जानिये सो नय है। पदार्थका एक धर्म है सो नय का विषय है × × × नय है सो
श्रुतप्रमाण का विकल्प है–अंश है। [अर्थप्रकाशिका पृ. १६]
[१४] तत्त्वार्थसार
तत्त्वार्थाः सर्व एवैते सम्यग्बोधप्रसिद्धये।
प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्ते च नयैस्तथा।।१४।।
× × × इनका प्रमाण के द्वारा निश्चय किया जाय तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है। प्रमाण से निश्चय होजाने पर नाना
नयोंद्वारा भी विविध प्रकार से इनका निश्चय किया जाता है। (तत्त्वार्थसार पृ. १३)
नयः–
वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मनः।
एकदेशस्य नेता य स नयोऽनेकधा मतः।।६७।।
अर्थ–अनंत धर्म या गुणोंके समुदायरूप वस्तुका स्वरूप प्रमाण–द्वारा जाना जाता है और जो उस अनंत धर्मात्मक वस्तु
के एक एक अंगोंका ज्ञान करा दे वह नय समझना चाहिये। वस्तुओं के धर्म अनंतों होनेसे अवयव कल्पनायें भी अनंतपर्यंत हो
सकती हैं और इसलिये अवयवों के ज्ञानरूप जो नय वे भी अनंत पर्यंत हो सकते हैं। (तत्त्वार्थसार पृ. ३५)
नयावंशेन नेतारौ द्वौ द्रव्यपर्ययार्थिकौ।। ३८।।
द्रव्य व पर्याय इन दोनों वस्तुअंशोंको जो ज्ञान जान सकते हैं उन दोनों ज्ञानोंको दो नय कहना चाहिये।
[–त. सार पृ. ३५]
सामान्य व विशेष दोनोंमें से सामान्य को ग्रहण करना यह एकदेशग्रहण हुआ। और इस ज्ञान को नय ही कहना
चाहिये। ××× ‘द्रव्य हो प्रयोजन अथवा विषय जिस नय का वह द्रव्यार्थिक है’ ××× [– त. सार पृ. ३६]
पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायार्थिको मतः।। ४०।।
× × × पर्याय को ग्रहण करनेवाला ज्ञान पर्यायार्थिक कहाता है। [– त. सार पृ. ३६]
पहिले तीन द्रव्यार्थिक नय व एक ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक नय–ये चार सीधे वस्तुओं को ग्रहण करते हैं इसलिये इन्हें
अर्थनय कहते हैं। [– त. सार. पृ. ३७]
अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः।
किसी वस्तु में अमुक एक पर्याय होने की योग्यतामात्र देखकर वह पर्याय वर्तमान में न रहते हुए भी उस वस्तु को
उस पर्याय–युक्त मानना–वही नैगमनय है। [– त. सार पृ. ३७–३८]
प्रमाण के द्वारा वस्तु सर्वांग, व नय के द्वारा असर्वांग समझने में आता है। ‘असर्वांग का असर्वांग’ ऐसा ज्ञान तभी