: १३८ : आत्मधर्म–१३७ : फागण : २०११ :
अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय–नयात्मकपरमचारित्र प्रतिपादनपरायण परमार्थ
प्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते।
हवे सकळ व्यावहारिक चारित्रथी अने तेना फळनी प्राप्तिथी प्रतिपक्ष एवुं जे शुद्ध निश्चयनयात्मक परम चारित्र तेनुं प्रतिपादन
करनारो परमार्थ–प्रतिक्रमण अधिकार कहेवामां आवे छे. [श्री नियमसार : परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकारनी उत्थानिका]
* × × × वृद्धावस्थाद्यनेक स्थूलकृशविविधभेदाः शुद्धनिश्चयनयाभिप्रायेण न मे सन्ति।
× × ×वृद्धावस्थादिरूप अनेक स्थूल–कृश विविध भेदो शुद्ध निश्चयनयना अभिप्राये मारे नथी.
[–नियमसार गा. ७७–८१ टीका]
सत्तावबोधपरमचैतन्यसुखानुभूतिनिरतविशिष्टात्मतत्त्वग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन मे सकलमोहरागद्वेषा न
विद्यन्ते।
सत्ता, अवबोध, परमचैतन्य अने सुखनी अनुभूतिमां लीन एवा विशिष्ट आत्मतत्त्वने ग्रहनारा शुद्धद्रव्यार्थिक नयना बळे
मारे सकळ मोह राग द्वेष नथी. [–नियमसार गा. ७७–८१ टीका]
× × × शुद्धनिश्चयनयात्मकपरमात्मध्यानात्मक प्रतिक्रमणप्रभृतिंसत्क्रिया बुध्द्वा × × ×
× × × शुद्धनिश्चयनयनात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि सत्क्रियाने जाणीने, × × × [–नियमसार गा. १५५ टीका]
[६] प्रवचनसार
वास्तव में सभी वस्तु सामान्यविशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखनेवालों के क्रमशः (१) सामान्य और (२)
विशेष को जाननेवाली दो आंखें हैं (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक।
इनमें से पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब
नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व–पर्यायस्वरूप विशेषों में रहनेवाले एक जीवसामान्य को देखनेवाले और
विशेषों को न देखनेवाले जीवों को ‘वह सब जीवद्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।
जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में
रहनेवाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखनेवाले और सामान्य को न
देखनेवाले जीवों को वह जीवद्रव्य अन्य अन्य भासित होता है।
जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक–दोनों आंखों को एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (द्रव्यार्थिक
तथा पर्यायार्थिक चक्षुओं के द्वारा) देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायों में
रहनेवाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्य में रहनेवाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायोंस्वरूप
विशेष तुल्यकाल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं।
एक आंख से देखा जाना एकदेश अवलोकन है, और दोनों आंखों से देखना सर्वावलोकन है। (आंख नय)
[पाटनी दि. जैन ग्रंथमाला का–श्री प्रवचनसार गाथा ११४ टीका]
× × × जो यह, उद्धत मोह की लक्ष्मी को लूंट लेनेवाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेक के द्वारा तत्त्व को
(आत्मस्वरूप को) विविक्त किया है। [–प्रवचनसार श्लोक ७]
पहले तो आत्मा वास्तव में चैतन्यसामान्य से व्याप्त अनंत धर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि अनंत
धर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनंत नय हैं उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से
(वह आत्मद्रव्य) प्रमेय होता है। [–प्रवचनसार परिशिष्ट]
× × × युगपत् अनंत धर्मों में व्यापक ऐसे अनंत नयों में व्याप्त होनेवाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण से निरूपण
किया जाय तो, ............आत्मद्रव्य अनेकान्तात्मक है।
[जैसे एक समय एक नदीके जल को जाननेवाले ज्ञानांश से देखा जाय तो समुद्र एक नदीके जलस्वरूप ज्ञात होता
है, उसी प्रकार एक समय एक धर्म को जानने वाले एक नय से देखा जाय तो आत्मा एक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है; परंतु जैसे
एक ही साथ सर्व नदियों के जल को जाननेवाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियों के जलस्वरूप ज्ञात होता है,
उसीप्रकार एक ही साथ सर्व धर्मों को जाननेवाले प्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है। इस प्रकार
एक नय से देखनेपर आत्मा एकान्तात्मक और प्रमाण से देखनेपर अनेकान्तात्मक है। [––देखो, प्रवचनसार परिशिष्ट]
इसप्रकार स्यात्कार श्री के निवास के वशीभूत वर्तते नयसमूहों से देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट
अनंत धर्मोंवाले निज आत्मद्रव्य को भीतर में शुद्ध चैतन्यमात्र देखते ही हैं। [–प्रवचनसार परिशिष्ट श्लोक १६]
वस्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं × × × इति नयलक्षणं... यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम्।
[प्रवचनसार अ. २ गा. ८६ जय. टीका]
वस्तुनो एकदेशनी परीक्षा अर्थात् ज्ञान ते नयनुं लक्षण छे, एम अहीं कह्युं छे; ते उपरथी स्पष्ट थाय छे के वस्तुनो एकदेश ते
नयनो विषय छे.]