: फागण : २०११ : आत्मधर्म–१३७ : १३९ :
* उत्सर्गो निश्चयनयः सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः।
अपवादो व्यवहारनयः एकदेशपरित्यागस्तथाचापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः।
[प्रवचनसार अ. २ गा. ३० जय. टीका]
*
तस्य च नयैः प्रमाणेन च परीक्षा क्रियते। तद्यथा–एतावत शुद्धनिश्चयेन निरूपाधि स्फटिकवत्समस्त
रागादिविकल्पोपाधिरहितम्। ××तदेव जीवद्रव्यं प्रमाणेण प्रमीयमाणं... अनेकस्वभावं भवति।
एवं नयप्रमाणाभ्यां तत्त्वविचारकाले योऽसौ परमात्मद्रव्यं जानाति स निर्विकल्पसमाधिप्रस्तावे निर्विकारस्वसंवेदन–
ज्ञानेनापि जानातीति। [प्रवचनसार परिशिष्ट, जय. टीका पृ. ३६८, ३७०, ३७१]
[अहीं नय अने प्रमाणथी तत्त्वविचारकाळे परमात्मद्रव्य जाणवानुं कह्युं छे.)
[७] पंचास्तिकाय
सुदणाणं पुण णाणी भणंति लद्धी य भावणा चेव।
उवओग णयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स।।२।।
× × × पुनरपि किंविशिष्टं (श्रुतज्ञानं) (उवओगणयवियप्पं) उपयोगविकल्पं नयविकल्पं च, उपयोगशब्देनात्र
वस्तुग्राहकं प्रमाणं भण्यते, नयशब्देन तु वस्त्वेकदेशग्राहको ज्ञातुरभिप्रायो विकल्पः। तथा चोक्तं ‘नयो ज्ञातुरभिप्रायः’। केन
कृत्वा वस्तुग्राहकं प्रमाणं वस्त्वेक–देशग्राहको नय इतिचेत् [णाणेण य] ज्ञातृत्वेन परिच्छेदकत्वेन ग्राहकत्वेन (वत्थु अत्थस्स)
सकल वस्तुग्राहकत्वेन प्रमाणं भण्यते अर्थस्य वस्त्वेकदेशस्य। कथंभूतस्य। गुणपर्यायरूपस्य ग्रहणेन पुनर्नय इति।
(अहीं स्पष्टपणे श्रुतज्ञानने उपयोगरूप तथा नयरूप कह्युं छे; अने प्रमाणनी जेम नय पण वस्तुना एकदेशनो जाणनार–
परिछेदक अथवा ग्राहक छे–एम कह्युं छे.) [–श्री पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य टीका पृ. ८६]
लेखांक बीजो
[८] तत्त्वार्थ सूत्र [पं. कैलाशचंद्रजी]
प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है। संपूर्ण वस्तु को जाननेवाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं
और वस्तु के एकदेश को जाननेवाले ज्ञान को नय कहते हैं [पं. कैलाशचंद्रजी संपादित तत्त्वार्थसूत्र पृ. ७]
× × × उस ज्ञान को तथा वचन को नैगमनय कहते हैं [और इसी तरह संग्रहादि सभी नयों में भी समझ लेना।]
[पं. कैलाशचंद्रजी संपादित तत्त्वार्थसूत्र पृ. २८–३१]
तत्त्वार्थसूत्र [पं. फूलचंद्रजी]
नय जब कि श्रुतज्ञान का भेद है × × × [पृ. ५८]
यद्यपि नय का अंतर्भाव श्रुतज्ञान में होता है [पृ. ५६]
नय यद्यपि श्रुतज्ञान का भेद है तो भी श्रुतप्रमाण से नय में अंतर है। जो अंश अंशी का भेद किये बिना पदार्थ को
समग्ररूप से विचारमें लेता है, और जो मतिज्ञानपूर्वक होता है वह श्रुतप्रमाण है। किंतु नयज्ञान ऐसा नहीं है। वह अंश अंशी
का भेद कर के अंश द्वारा अंशीका ज्ञान कराता है। इसीसे प्रमाणज्ञान सकलादेशी और नयज्ञान विकलादेशी माना गया है।
सकलादेश में सकल शब्द से अनंत धर्मात्मक वस्तु का बोध होता है। जो ज्ञान सकल अर्थात् अनंतधर्मात्मक वस्तु का बोध
करता है वह सकलादेशी होने से प्रमाण ज्ञान माना गया है। तथा विकलादेश में विकल शब्द से एकान्त का बोध होता है, जो
ज्ञान विकल अर्थात् एक धर्म द्वारा अनंत धर्मात्मक वस्तु का बोध कराता है वह विकलादेशी होने से नयज्ञान माना गया है।
[पृ. ५६]
समीचीनता की द्रष्टिसे तो (प्रमाण व नय) दोनों ही ज्ञान प्रमाण हैं, किन्तु प्रमाण का अर्थ सकलादेशी करने पर यह
अर्थ नयज्ञान में घटित नहीं होता। प्रमाण को शरीर और नय को उसका अवयव कह सकते हैं। [पृ. ५६–६०]
शंका–– जब कि नयज्ञान विकलादेशी है तब फिर समीचीनता की द्रष्टि से उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है?
समाधान–– आगम में अनेकांत दो प्रकार का बतलाया है–सम्यगनेकान्त और मिथ्याअनेकान्त।... उसी प्रकार एकान्त
भी दो प्रकारका है–सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त।... इनमें से सम्यक् अनेकान्त प्रमाणज्ञान का विषय माना गया है...इसी
प्रकार सम्यक् एकान्त नय का विषय माना गया है।.. यतः नयज्ञान अनेकान्त को विषय नहीं करके भी उसका निषेध नहीं
करता। प्रत्युत अपने विषय द्वारा उसकी पुष्टि ही करता है। इसलिये नयज्ञान भी समीचीनता की द्रष्टि से प्रमाण माना गया है।
[–,, पृ. ५६–६०]