: १४६ : आत्मधर्म–१३७ : फागण : २०११ :
[२१] पुरुषार्थसिद्धिउपाय
ऊपर कहे हुए प्रमाण के अंश को ही नय कहते हैं अर्थात् प्रमाण द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थ के एक धर्म को मुख्यता से
जो अनुभवन कराता है वह नय है। इसके दो भेद हैं एक द्रव्यार्थिकनय और दूसरा पर्यायार्थिकनय।
[पुरुषार्थसिद्धि उपाय पृ. २५]
[२२] आलापपद्धति
‘तदवयवाः नयाः। ’
[अर्थ] प्रमाण के अंशों का नाम नय है।
[भावार्थ] वस्तु के एक देश के ग्रहण करनेवाले–विषय करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। [–आलापपद्धति पृ. ५०]
नयका स्वरूप–
प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नयः, श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः, नानास्वभावेंभ्यो व्यावर्त्य
एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः।
[अर्थ] प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश के ग्रहण करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञान के
विकल्प को नय कहते हैं। अथवा ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा जो नानास्वभावों से हटाकर के किसी एक
स्वभाव में वस्तु को प्राप्त कराता है उसको नय कहते हैं।
[२३] अष्टसहस्त्री
तथा चोक्तम्–
“अर्थस्यानेकरूपस्यम धीः प्रमाणं, तदंशधीः।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः।।” [– अष्टसहस्त्री पृ. २६०]
तदंशग्राहिका बुद्धिनयः [फूटनोट, अष्टसहस्त्री पृ. २६०]
[२४] लधीयस्त्रय व उसके टिप्पण
६३ [श्रुतस्य भेदं दर्शयन्नाह–]
उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ।
स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा।।६२।। [– लधीयस्त्रय पृ. २१]
६६. [साम्प्रतं ‘नयो ज्ञातुरभिप्रायः’ इत्येतद्वयाख्यातु–काम आह–]
श्रुतभेदाः नयाः सप्त नैगमादिप्रभेदतः। [– लधीयस्त्रय पृ. २२]
“ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयास्ते द्रव्यपर्यायतं......नयो ज्ञातुर्मतं मतः।” [– सिद्धिवि. पृ. ५१७ A. ५१८ A]
“द्रव्यस्यानेकात्मनोऽन्यतमैकात्मावधारणं एकदेशनयनान्नयाः।” [– नयचक्र वृ. पृ. ६ B]
“.....प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशवरत्वध्यवसायो नयः। [– धवल टी. सत्प्ररू०]
“नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः।” [– तत्त्वार्थश्लोक. पृ. २६८]
“अनिराकृतप्रतिप्रक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।” [– प्रमेयक. पृ. २०५ A.]
[नोंधः उपर जो अवतरण दिये हैं वे लधीयस्त्रय पृ. १४२ से १४६ तक की टिप्पणी में से लिये हैं।]
प्रमाणादीनां समासतो लक्षणं प्रतिपादयन्नाह–
ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः उपायो न्यास इष्यते।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः।।५२।।
× × × नयो ज्ञातुरभिप्रायः, प्रमाणविषयीकृतेऽर्थे एकांशविषयो ज्ञातुः प्रमातुरभिप्रायः।
[–न्यायकुमुदचन्द्र–लधीयस्त्रय पृ. ६५६]
[२५] मोक्षमार्ग प्रकाशक
मोक्षमार्ग प्रकाशकना त्रीजा अध्यायमां ज्ञान–दर्शनावरणना उदयथी थतुं दुःख अने तेना उपायोनुं जूठापणुं बताव्युं छे, तेमां
ईन्द्रियजन्यज्ञान वडे पदार्थोनुं जे जाणपणुं थाय छे तेने ‘विषयोनुं ग्रहण’ कहेवामां आव्युं छे. त्यां ‘ग्रहण’ एटले ज्ञान एवो तेनो अर्थ छे. जेमके–
“ईन्द्रियो वडे तो एक काळमां कोई एक ज विषयनुं ग्रहण थाय छे, पण आ जीव घणा घणा विषयो ग्रहण करवा ईच्छे छे,
तेथी उतावळो बनी जलदी जलदी एक विषयने छोडी अन्यने ग्रहण करे छे, वळी तेने छोडी अन्यने ग्रहण करे छे. ××× ईन्द्रियोने
प्रबळ करवाथी कांई विषयग्रहणनी शक्ति वधती नथी, ए तो ज्ञानदर्शन वधवाथी ज वधे. ××× कषायादिक घटवाथी कर्मनो क्षयोपशम
थतां ज्ञान–दर्शन वधे छे अने त्यारे ज विषयग्रहणनी शक्ति वधे छे.”
(–विशेष माटे जुओ, मोक्षमार्ग प्रकाशक गुजराती पृ. ५० थी ५३)