: 132 : Atmadharma–137 : phAgaN : 2011 :
[uparyukta bAbato sambandhI shAstrAdhAro nIche mujab chhe : ahIn phakta nayanA svarUp sambandhI spaShTIkaraN karavA mATe ja A
shAstrAdhAro ApavAmAn AvyA chhe e vAt darek jignAsue lakShamAn rAkhavI.]
[१] षट्खंडागम
प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः।
[हिंदी] प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं।
[–श्री षट्खंडागम पु. १ पृ. ८३]
प्रमाण–नयैर्वस्त्वधिगम इत्यनेन सूत्रेणापि नेदं व्याख्यानं विघटते। कुतः? यतः प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारतः
प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नबोधौ विधिप्रतिषेधात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रमाणतामादधनावपि कार्ये कारणोपचारतः
प्रमाणनयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ। नयवाक्यादुत्पन्नबोधः प्रमाणमेव न नय, इत्येतस्य ज्ञापनार्थं ताभ्यां वस्त्वधिगम इति
भण्यते। अथवा प्रधानीकृतबोधः पुुरुषः प्रमाणम्, अप्रधानीकृतबोधो नयः।
[हिंदी] ‘प्रमाण और नय से वस्तु का ज्ञान होता है’ इस सूत्र द्वारा भी यह व्याख्यान विरुद्ध नहीं पड़ता। इसका
कारण यह कि प्रमाण और नयसे उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय हैं, उन दोनों से उत्पन्न उभयबोध विधि–
प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणता को धारण करते हुए भी कार्य में कारण का उपचार करने से प्रमाण व
नय हैं, इस प्रकार सूत्र में ग्रहण किये गये हैं। नयवाक्य से उत्पन्न बोध प्रमाण ही है, नय नहीं है; इस बात के ज्ञापनार्थ ‘उन
दोनों से वस्तु का ज्ञान होता है’ ऐसा कहा जाता है। अथवा, बोध को प्रधान करनेवाला पुरुष प्रमाण और उसे अप्रधान
करनेवाला नय है। [–षट्खंडागम पु. ६ पृ. १६४]
[२] कसायपाहुड–जयधवला
णयदो णिप्पण्णं कसायपाहुडं।
१६८. को णयो णाम? ‘प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्व ध्यवसायो नयः।’ “नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थ
परिग्रहः।। ७५।। वेत्यन्ये। एतदन्तरंग नयलक्षणम्।
[हिंदी] कषायप्राभृत यह नाम नयनिष्पन्न है।।
शंका– नय किसे कहते हैं?
समाधान– प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के एकदेश में वस्तु का निश्चय करानेवाले ज्ञान को नय कहते हैं।
अन्य आचार्यो ने भी कहा है कि ‘ज्ञाता के अभिप्राय का नाम नय है जो कि प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एकदेश द्रव्य अथवा
पर्याय को अर्थरूप से ग्रहण करता है।। ७५।। यह अन्तरंग नय का लक्षण है।। [–श्री कसायपाहुड पुस्तक १ पृ. १६६–२००]
[विशेषार्थ] × × × उपर जो वस्तु के एकदेश में वस्तु के अध्यवसाय को या ज्ञाता के अभिप्राय को अन्तरंग नय का लक्षण
बतलाया है वह ज्ञानात्मक नय का लक्षण समझना चाहिये। यहाँ अन्तरंग नय से ज्ञानात्मक नय अभिप्रेत हैं। × × × नयज्ञान
जितने भी होते हैं वे सभी सापेक्ष होकर ही सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। × × × इस कथन का यह तात्पर्य हुआ कि नयज्ञान और
प्रमाणज्ञान ये दोनों यद्यपि ज्ञानसामान्य की अपेक्षा एक हैं, फिर भी इन में विशेष की अपेक्षा भेद है। नयज्ञान जाननेवाले के
अभिप्राय से संबंध रखता है। [–श्री कसायपाहुड पुस्तक १ पृ. २०१]
[३] समयसार
अब शुद्धनय को गाथासूत्र से कहते हैं–
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं।
अविसेसमसजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।।१४।।
[अर्थ] जो नय आत्मा को बंधरहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के
संयोग से रहित, ऐसे पांचभावरूप से देखता है–उसे हे शिष्य! तू शुद्धनय जान।
[टीका] निश्चय से अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त–ऐसे आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है, और
वह अनुभूति आत्मा ही है, इस प्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है। (शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही हैं,
अलग नहीं।) [–पाटनी दि. जैन ग्रंथमाला का हिंदी समयसार पृ. ३७ गा. १४ व टीका]
आत्मा पांच प्रकार से अनेकरूप दिखाई देता है। × × × यह सब अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनय का विषय है। इस
द्रष्टि से देखा जाये तो वह सब सत्यार्थ है। परंतु आत्मा का एक–स्वभाव इस नयसे ग्रहण नहीं होता, और एक–स्वभाव को
जाने बिना यथार्थ आत्मा को कैसे जाना जा सकता है? इसलिये दूसरे नय को–उसके प्रतिपक्षी शुद्ध द्रव्यार्थिकनय को ग्रहण
करके, एक असाधारण ज्ञायक–मात्र आत्मा का भाव लेकर, उसे शुद्धनय की द्रष्टि से × × × देखा जाये तो सर्व (पांच) भावों
से जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ है–असत्यार्थ है। [,, ,, समयसार पृ. ३६ गा. १४ भावार्थ]