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जाणनार ते मान नहि, कहिये केवुं ज्ञान?’
पोताना ज्ञानमां घट–पट वगेरे जणाय छे, ते घट–पटने तो माने, पण तेने जाणनार एवा
परने तो जाणे छे, ने जाणनार एवा पोताने तुं नथी जाणतो–ए आश्चर्य छे. ते ज प्रमाणे अहीं
क्रमबद्धमां पण, विकारनो ने परनो क्रम माने पण ते क्रमने जाणनारा एवा पोताना
ज्ञायकस्वभावने न जाणे तो तेनुं ज्ञान केवुं छे? –के मिथ्या छे.
संयोगमांथी ज्ञान आव्युं एम ते मूढ माने छे, तेथी संयोगनुं लक्ष छोडीने स्वभावमां ते वळतो
नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के मारा ज्ञानस्वभावनुं परिणमन थईने तेमांथी आ ज्ञान आव्युं छे. आम
जाणतां ज्ञानस्वभावना आश्रये सम्यग्ज्ञान थईने परमात्मदशा प्रगटी जाय छे. जो रागना आश्रये
ज्ञान वधतुं होय तो राग वधतां ज्ञान वधतुं जाय ने घणा रागथी परमात्मदशा थाय. पण एम कदी
बनतुं नथी. रागनो सर्वथा अभाव थया पछी ज केवळज्ञान ने परमात्मदशा प्रगटे छे, माटे राग ते
ज्ञाननुं कारण नथी. तेम ज संयोगना लक्षे ज्ञान वधतुं होय तो संयोगनुं लक्ष छोडीने
ज्ञानानंदस्वभावमां लक्ष करीने लीन थाय त्यारे ज केवळज्ञान थाय छे; माटे संयोगना लक्षे ज्ञान
वधतुं नथी. सम्यग्दर्शनने माटे, सम्यग्ज्ञानने माटे, के सम्यक्चारित्रने माटे एक पोताना
ज्ञानानंदस्वभाव सिवाय बीजो कोई आधार छे ज नहि. धर्म मां पोताना स्वभाव सिवाय बीजा
कोईना आश्रयनो अभाव छे.