Atmadharma magazine - Ank 142
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण: २४८१ : २३७:
अनेकान्तमूर्ति भगवान आत्मानी
केटलीक शक्तिओ
• उत्पाद – व्य – ध्रुवत्वशक्ति (चालु) •
[लेखांक त्रीजो : अंक १४१ थी चालु]
बधायने जाणनारो पोतानो ज्ञानस्वभाव छे, ते ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्या वगर ज्ञाननुं
साचुं कार्य क्यांथी थशे? श्रीमद राजचंद्र पण कहे छे के–
‘घट पट आदि जाण तुं तेथी तेने मान;
जाणनार ते मान नहि, कहिये केवुं ज्ञान?’
–आत्मसिद्धि

पोताना ज्ञानमां घट–पट वगेरे जणाय छे, ते घट–पटने तो माने, पण तेने जाणनार एवा
पोताना ज्ञानस्वभावने न ओळखे, तो ते ज्ञान केवुं? ते ज्ञान नथी पण अज्ञान छे. अरे भाई! तुं
परने तो जाणे छे, ने जाणनार एवा पोताने तुं नथी जाणतो–ए आश्चर्य छे. ते ज प्रमाणे अहीं
क्रमबद्धमां पण, विकारनो ने परनो क्रम माने पण ते क्रमने जाणनारा एवा पोताना
ज्ञायकस्वभावने न जाणे तो तेनुं ज्ञान केवुं छे? –के मिथ्या छे.
पहेलांं ओछुं ज्ञान होय ने पछी वधारे ज्ञान थाय त्यां, मारो ज्ञानस्वभाव बदलीने (–
परिणमीने) आ विशेष ज्ञान आव्युं छे–एम अज्ञानी नथी जाणतो, पण शास्त्र वगेरे बाह्य
संयोगमांथी ज्ञान आव्युं एम ते मूढ माने छे, तेथी संयोगनुं लक्ष छोडीने स्वभावमां ते वळतो
नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के मारा ज्ञानस्वभावनुं परिणमन थईने तेमांथी आ ज्ञान आव्युं छे. आम
जाणतां ज्ञानस्वभावना आश्रये सम्यग्ज्ञान थईने परमात्मदशा प्रगटी जाय छे. जो रागना आश्रये
ज्ञान वधतुं होय तो राग वधतां ज्ञान वधतुं जाय ने घणा रागथी परमात्मदशा थाय. पण एम कदी
बनतुं नथी. रागनो सर्वथा अभाव थया पछी ज केवळज्ञान ने परमात्मदशा प्रगटे छे, माटे राग ते
ज्ञाननुं कारण नथी. तेम ज संयोगना लक्षे ज्ञान वधतुं होय तो संयोगनुं लक्ष छोडीने
ज्ञानानंदस्वभावमां लक्ष करीने लीन थाय त्यारे ज केवळज्ञान थाय छे; माटे संयोगना लक्षे ज्ञान
वधतुं नथी. सम्यग्दर्शनने माटे, सम्यग्ज्ञानने माटे, के सम्यक्चारित्रने माटे एक पोताना
ज्ञानानंदस्वभाव सिवाय बीजो कोई आधार छे ज नहि. धर्म मां पोताना स्वभाव सिवाय बीजा
कोईना आश्रयनो अभाव छे.
उत्पाद–व्यय–ध्रुवस्वभावथी आत्मा पोताना गुणोमां अक्रमे वर्ते छे ने पर्यायोमां क्रमे वर्ते छे.
आ रीते क्रम–अक्रमपणे वर्तवुं ते ज आत्मानुं वर्तन छे. आ सिवाय, पोताना गुण–पर्यायोथी