Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 21

background image
[४२] क्रियानये आत्मानुं वर्णन
[पंचास्तिकायनी १७२ मी गाथामां कहेला निश्चय–व्यवहारनो खुलासो पण आमां आवी जाय छे.]
‘आत्मद्रव्य क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे.’ जेम कोई अंधपुरुषने पत्थरना
थांभला साथे माथुं फोडवाथी माथामांना लोहीनो विकार दूर थवाने लीधे आंखो खूली जाय अने निधान प्राप्त थाय,
तेम क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी सिद्धि थाय एवो आत्मा छे.
अहीं क्रियानयमां अनुष्ठाननी प्रधानता कही छे, ने हवे ४३ मां ज्ञाननयमां विवेकनी प्रधानता रहेशे;
आचार्यदेवे आ ४२ अने ४३ नयोमां ‘प्रधानता’ शब्द वापर्यो छे, ते एम बतावे छे के गौणपणे बीजुं पण वर्ते छे;
अहीं ४२ मा क्रियानयमां अनुष्ठाननी एटले के शुभनी प्रधानता कही छे ते एम बतावे छे के गौणपणे ते ज वखते
सम्यग्ज्ञाननो विवेक पण वर्ते छे. शुभरागनी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एम क्रियानयथी कह्युं ते ज वखते, गौणपणे
शुद्धता छे तेनुं ज्ञान भेगुं होय तो ज, क्रियानय साचो कहेवाय. शास्त्रमां कयांक व्यवहारनी प्रधानतानुं कथन आवे
त्यां अज्ञानी जीवो तेनो ऊंधो अर्थ करे छे के व्यवहार (शुभराग) करतां करतां तेना आश्रये परमार्थनी प्राप्ति थई
जशे.–परंतु शास्त्रनो एवो आशय नथी.
आशंकाः– पंचास्तिकायनी १७२ मी गाथामां तो एम कह्युं छे के भिन्न साध्यसाधनरूप व्यवहारने न माने
तो मिथ्याद्रष्टि छे–तेनो अर्थ शुं छे?
समाधानः– साधक अवस्थामां शुद्धताना अंशनी साथे भूमिका प्रमाणे शुभराग पण आवे छे तेनुं त्यां ज्ञान
कराव्युं छे, अने उपचारथी ते रागने व्यवहार साधन कह्युं छे. ते व्यवहारना आश्रये निश्चय पमाय एवो तेनो
आशय नथी पण साधकने ते बंने साधन एक साथे वर्ते छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे ते कथन छे. साधकने ते बंने
वर्ते छे एम न माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे एम समजवुं, पण रागादि व्यवहारसाधनना अवलंबनथी निश्चयसाधन
पमाई जशे एम न समजवुं. जेने निश्चयनुं भान नथी, अने भिन्न साध्य–साधनने पण मानतो नथी, स्वच्छंदपणे
पापमां प्रवर्ते छे, एवा जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे. अने साथे साथे त्यां ज एम पण कह्युं छे के जे निश्चयने तो
जाणता नथी ने केवळ व्यवहारअवलंबी छे ते एकला भिन्न साध्यसाधनभावने ज अवलोकनारा सदा खेदखीन्न
वर्ते छे ने शुभरागरूप व्यवहारसाधनमां ज वर्ते छे ते जीवो दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी एकतापरिणति रूप
ज्ञानचेतनाने कोई काळे पामता नथी, पण कलेशनी परंपराने पामीने संसारमां ज भ्रमण करे छे.
पंचास्तिकायनी १७२मी गाथा आ प्रमाणे छे.
तह्मा णिव्वुदिकामों रागं सवत्थ कुणदि मा किंचि ।
सो तेण वीदरागो भवियो भवसायरं तरदि ।।
–एटले के, राग ते साक्षात् मोक्षना अंतरायरूप छे माटे जे मोक्षना कामी छे ते सर्वत्र किंचित् पण राग न
करो, जेथी ते भव्य वीतराग थईने भवसागरने तरी जाय छे. एम कहीने त्यां वीतरागताने ज तात्पर्य बताव्युं छे.
मूळ सूत्रमां एकदम वीतरागतानी वात करी, पण हजी साधकने राग तो थाय छे तेथी, टीकामां आचार्यदेवे भिन्न
साध्यसाधननी वात करीने ते रागनुं ज्ञान कराव्युं छे. ‘कयांय जरा पण राग न कर’–एम कह्युं, पण साधकने राग
तो थाय छे तेनुं शुं? तो कहे छे के ते रागने भिन्न साधन मान, एटले के आत्माना वीतरागी रत्नत्रयरूप जे
परमार्थ साधन छे तेनाथी ते रागने भिन्न जाण.
पहेलां तो वीतरागता ते ज तात्पर्य छे–ए वात स्थापीने पछी रागनुं ज्ञान कराववा तेने भिन्न साधन
कह्युं छे; ‘भिन्नसाधन’ कहेतां ज ते खरुं साधन नथी एम तेमां आवी जाय छे. साक्षात् कारण तो वीतरागभाव ज
छे. निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप जे वीतरागभाव छे ते ज मोक्षनुं कारण छे, राग तो अंतरमां दाहने
उत्पन्न करनार छे. जेम चंदननो स्वभाव तो सुगंधी अने शीतळ छे, पण ते चंदनना वनमां अग्नि प्रवेश करतां
दाह उत्पन्न करे छे, तेम वीतरागभावरूप जे चंदनवन, तेमां रागरूपी अग्नि दाह (बळतरा) उत्पन्न करे छे; माटे
‘उत्तम पुरुषोए’ ते रागने तात्पर्य न मानवुं पण तेने हेय जाणवो, अने वीतरागभावने ज तात्पर्य मानवुं. तथा
ते वीतरागभाव शुद्ध आत्मद्रव्यना अवलंबनथी थाय छे माटे शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे–एम जाणवुं. साधकने वच्चे
राग आव्या विना रहेतो नथी, पण तेने भिन्नसाधन कहीने स्वभावथी जुदो बताव्यो छे. रागने जे तात्पर्य माने
बीजो भादरवो
ः २७९ः