Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष बारमुंः सम्पादकः बीजो भादरवो
रा म जी मा णे क चं द दो शी २४८१
जुदो–जुदो– ने जुदो
आत्मा अमूर्तिक चैतन्यमूर्ति छे, तेनाथी आ जड पुद्गलमय देह भिन्न
छे. चैतन्यमूर्ति आत्माथी आ अचेतन देह जुदो ज हतो, जुदो ज छे, ने जुदो ज
रहेशे. जुदो.....जुदो....ने जुदो....त्रणेकाळ जुदो! चेतनने अने जडने एकमेक पणुं
कदी छे ज नहि, बंने त्रिकाळ जुदां ज छे. अरे जीव! जडथी भिन्न एवुं मारुं
चेतनस्वरूप छे–एवी भिन्नतानो बोध तो कर. जीवनमां भिन्नतानो बोध कर्यो
हशे तो देहना वियोग टाणे चैतन्यनां लक्षे समाधि रहेशे. जेने जडथी भिन्नतानुं
भान नथी ते तो देहमां ने रागमां एकत्व बुद्धिथी भींसाई जशे. भाई! जडथी
ने विकारथी हुं जुदो चैतन्यमूर्ति छुं–एवुं भान करीने जीवनमां तेनी भावना तो
कर. ए भिन्नतानी भावनाथी आत्मामां एकताना जोरे आनंदमां मशगूल थईने
उत्तम समाधिमरण थशे.
(–प्रवचनमांथी.....नियमसार गा. ९२)
वार्षिक लवाजम खास अंक छूटक नकल
त्रण रूपिया चार आना
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)