Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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तीर्थंकर प्रकृतिना आस्रवना कारणभूत सोळ भावनाओ वर्णवी छे, तेमां सौथी पहेली दर्शनविशुद्धि छे; ते
दर्शनविशुद्धि मुख्य छे अने सम्यग्दर्शन वगर ते दर्शनविशुद्धिभावना होती नथी. सम्यग्दर्शन वगर कोई जीव एम
माने के हुं सोळ कारणनी भावना करीने तीर्थंकरप्रकृति बांधुं,–तो एम बंधाय नहि. जेने तीर्थंकर प्रकृति बांधवानी
भावना छे तेने आस्रवनी भावना छे एटले ते मिथ्याद्रष्टि छे ने मिथ्याद्रष्टिने तीर्थंकरप्रकृति कदी बंधाती नथी.
अहीं खरेखर तीर्थंकरप्रकृतिनो महिमा नथी बताववो पण सम्यग्दर्शननो महिमा बताववो छे. कोई
सम्यग्द्रष्टि जीवने सोळ कारणमांथी सम्यग्दर्शननी शुद्धि ज होय एटले के दर्शनविशुद्धिभावना ज होय, ने बीजा पंदर
कारणो विशेषपणे न होय तो पण तेने तीर्थंकरप्रकृति बंधाई शके छे. पण दर्शन विशुद्धि सिवायना बीजा पंदर कारणो
सामान्यपणे होय ने एक दर्शनविशुद्धि ज न होय, तो एवा मिथ्याद्रष्टि जीवने कांई तीर्थंकरप्रकृति बंधाती नथी.
सम्यग्द्रष्टिओमां पण जे द्रव्यमां ते जातनी तीर्थंकर थवानी खास लायकात होय ते जीवने ज ते प्रकृति बंधाय छे.
बधाय सम्यग्द्रष्टि जीवोने कांई तीर्थंकरप्रकृति नथी बंधाती, अमुक जीवद्रव्यमां ते जातनी विशिष्ट योग्यता होय तेने
ज ते प्रकृति बंधाय छे; पण जेने जेने ते अचिंत्य तीर्थंकरप्रकृति बंधाय छे तेने तेने सम्यग्दर्शनसहितनी भूमिकामां ज
ते बंधाय छे, मिथ्याद्रष्टिनी भूमिकामां तो ते प्रकृति बंधाती ज नथी. आ रीते सम्यग्द्रष्टिना भावनो महिमा छे. त्रण
लोकमां उत्तम अने सारभूत एवी अपूर्व बोधिरूप मोक्षमार्ग सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. तेम त्रणलोकमां उत्तम
पुण्यरूप एवी तीर्थंकरप्रकृति पण सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. आ रीते सम्यग्दर्शननो महिमा बताववो छे. समकितीने
कांई कर्मना आस्रवनी (तीर्थंकरप्रकृतिनी पण) भावना नथी, भावना तो शुद्धतानी ज छे. सोळ कारणनी भावना
कही तेमां पण कांई ते प्रकारना रागनी के आस्रवनी भावना नथी, स्वभावनी पूर्णतानी ज भावना छे. ते
भावनामां वच्चे ते प्रकारना विकल्पोथी तीर्थंकरप्रकृति वगेरे पुण्य बंधाय छे.
तीर्थंकरप्रकृति बंधावानी शरूआत समकितीने मनुष्यभवमां ज थाय छे अने ते पण केवळी के श्रुतकेवळीनी
समीपमां ज थाय छे. महावीर भगवानना वखतमां आ भरतक्षेत्रमां श्रेणीक राजाए सम्यग्दर्शनसहितनी भूमिकामां
तीर्थंकरनामकर्म बांध्युं छे, ने अत्यारे ते नरकमां होवा छतां त्यां पण क्षणे क्षणे तीर्थंकरप्रकृतिना रजकणो बंधाय छे.
त्यांथी नीकळीने ते श्रेणीकना जीव आ भरतक्षेत्रे आवती चोवीसीना पहेला तीर्थंकर थशे. ते भवमां राग तोडीने
केवळज्ञान थया पछी ते तीर्थंकर प्रकृतिनो उदयआवशे ने तेना निमित्ते अद्भुत समवसरणनी रचना ईंद्रो करशे तथा
दिव्यध्वनि छूटशे; ने तेना निमित्ते अनेक जीवो धर्म पामशे. सम्यग्दर्शन सहित शुद्धभावनी भूमिकामां ज आवुं बने
छे, तेथी अहीं तो ते सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावनो महिमा बताववो छे. अने ते शुद्धभावनी प्राप्ति जैनशासनमां ज
थाय छे तेथी जैनशासननो महिमा छे.
जैनशासननो उपदेश एम कहे छे केः अरे, चैतन्य! तुं स्वसन्मुख था....स्वसन्मुख था. स्वसन्मुख थवुं ते ज
जागृतिनो उपाय छे, स्वसन्मुखतामां ज तारुं हित छे. तेमां ज मोक्षमार्ग छे. भाई रे! आत्मा शुं? तेना भान
विना कयांथी तारी जागृति थशे! तने आत्मानी भावना छे के कर्मना बंधननी? तने छूटकारानी भावना छे के
बंधननी? तने मोक्षनी भावना छे के संसारनी? जो तने छूटकारानी भावना होय–मोक्षनी भावना होय तो
जैनशासनमां कहेला शुद्धभावोनुं तुं सेवन कर, ने रागनुं सेवन छोड! धर्मीने बंधननी भावना होय नहि, तेने तो
शुद्ध आत्मानी ज भावना होय छे; आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागभावनी ज तेने भावना
छे. ने वीतरागभाव ते ज जैनधर्म छे. राग ते जैनधर्म नथी. जेने रागनी भावना छे तेने जैनधर्मनी खबर नथी.–
आ वात ८३ मी गाथामां आचार्यदेव एकदम स्पष्ट करशे.
(आसो सुद पः २४८१)
आ भावप्राभृत वंचाय छे; तेमां आचार्यदेव कहे छे के, आत्मा ज्ञान–आनंद स्वरूप छे, शुद्धज्ञानचेतना तेनो
स्वभाव छे, ने पुण्य–पाप ते अशुद्धभाव छे ते तेनो स्वभाव नथी. आवा आत्मानी श्रद्धारूप शुद्धभावनी भूमिका
ः प०ः
आत्मधर्मः १४७