स्वसन्मुख थवुं ते ज जागृतिनो उपाय छे....स्वसन्मुखतामां ज तारुं हित
छे, तेमां ज मोक्षमार्ग छे. भाई रे! आत्मा शुं? तेना भान विना कयांथी
तारी जागृति थशे?
भावना होय,–तो जैनशासनमां कहेला सम्यक्त्वादि शुद्धभावोनुं तुं सेवन कर, ने
रागादिनुं सेवन छोड. धर्मीने रागनी भावना होय नहि, तेने तो शुद्धआत्मानी
ज भावना होय छे.
शुभभाव पण सम्यग्द्रष्टिने ज आवे छे, मिथ्याद्रष्टिने एवा भाव होता ज नथी. अहो! तीर्थंकरना वैभवनी शी
वात! एना आत्मानो चैतन्यवैभव तो अचिंत्य छे, ने बहारनो पुण्य वैभव लोकोत्तर होय छे. सो इन्द्रो जेमनां
चरणने पूजे तेमना पण पुण्यनी शी वात! सो इन्द्रोना पुण्य करतां पण जेमनां पुण्य उत्तम छे एवा तीर्थंकरदेव,
अने तेमनुं दिव्य समवसरण,–ते तो नजरे जुए तेने खबर पडे!–‘विना जोये न समजाये, समोसर्ण जिनेशनुं.’–
पण अहीं तो ए बताववुं छे के आवो भाव सम्यग्द्रष्टिने ज आवे छे. सम्यग्दर्शन सहितनी भूमिकामां ज
तीर्थंकरप्रकृति बंधाय छे, ते सिवाय बंधाती नथी. चोथा गुणस्थाने पण समकितीने–जेने तेवी योग्यता होय तेने–
तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे. (श्रेणीकराजावत्). पण अहीं उत्कृष्ट वात बताववा आ गाथामां मुनिनी वात लीधी छे.