Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 21

background image
जिनशासननो महिमा []
(श्री भाव–प्राभृत गा. ७९–उपरना प्रवचनोमांथी)
जैनशासननो उपदेश एम कहे छे केः अरे चैतन्य! तुं स्वसन्मुख था.....
स्वसन्मुख थवुं ते ज जागृतिनो उपाय छे....स्वसन्मुखतामां ज तारुं हित
छे, तेमां ज मोक्षमार्ग छे. भाई रे! आत्मा शुं? तेना भान विना कयांथी
तारी जागृति थशे?
तने आत्मानी भावना छे के कर्मना बंधननी?
तने छूटकारानी भावना छे के बंधननी?
तने मोक्षनी भावना छे के संसारनी?
तने शुद्धतानी भावना छे के विकारनी?
हे भाई! जो तने छूटकारानी भावना होय– मोक्षनी भावना होय, शुद्धतानी
भावना होय,–तो जैनशासनमां कहेला सम्यक्त्वादि शुद्धभावोनुं तुं सेवन कर, ने
रागादिनुं सेवन छोड. धर्मीने रागनी भावना होय नहि, तेने तो शुद्धआत्मानी
ज भावना होय छे.
पू. गुरुदेव.
समकितीने ज सोळ भावना तथा तीर्थंकरप्रकृति
हवे कहे छे के उत्कृष्ट पुण्यबंधरूप तीर्थंकरप्रकृति पण जिनशासनमां सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने ज बंधाय छे,
मिथ्याद्रष्टिने तेवां पुण्य पण होता नथी. अहो! धर्मनी वात तो शुं करवी! पण जेनाथी तीर्थंकर प्रकृति बंधाय एवा
शुभभाव पण सम्यग्द्रष्टिने ज आवे छे, मिथ्याद्रष्टिने एवा भाव होता ज नथी. अहो! तीर्थंकरना वैभवनी शी
वात! एना आत्मानो चैतन्यवैभव तो अचिंत्य छे, ने बहारनो पुण्य वैभव लोकोत्तर होय छे. सो इन्द्रो जेमनां
चरणने पूजे तेमना पण पुण्यनी शी वात! सो इन्द्रोना पुण्य करतां पण जेमनां पुण्य उत्तम छे एवा तीर्थंकरदेव,
अने तेमनुं दिव्य समवसरण,–ते तो नजरे जुए तेने खबर पडे!–‘विना जोये न समजाये, समोसर्ण जिनेशनुं.’–
पण अहीं तो ए बताववुं छे के आवो भाव सम्यग्द्रष्टिने ज आवे छे. सम्यग्दर्शन सहितनी भूमिकामां ज
तीर्थंकरप्रकृति बंधाय छे, ते सिवाय बंधाती नथी. चोथा गुणस्थाने पण समकितीने–जेने तेवी योग्यता होय तेने–
तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे. (श्रेणीकराजावत्). पण अहीं उत्कृष्ट वात बताववा आ गाथामां मुनिनी वात लीधी छे.
पोषः २४८२ ः ४९ः