Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जेनाथी आत्मानुं हित थाय एवो जैनशासननो उपदेश छे. परद्रव्य तरफना झूकावथी
लाभ थाय ए कथन जैनशास्त्रनुं छे ज नहि. स्वद्रव्य तरफना झूकावथी ज लाभ छे ने स्वद्रव्य
तरफनो झूकाव ते ज जिनशासन छे. धर्मीने साधकदशामां राग पण होय, परंतु ते जाणे छे के आ
राग ते धर्म नथी. धर्म तो मारा स्वभावना ज अवलंबने वीतरागभावरूप छे.
वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवे कहेलुं जिनशासन तो एम बतावे छे के हे जीव! परद्रव्यथी के
परद्रव्य तरफना झूकावथी धर्म थाय एम कदी कोई जीवने बनतुं नथी. स्वद्रव्य तरफना झूकावथी
ज धर्म थाय छे, माटे तुं तारा स्वद्रव्यने ओळखीने तेमां अंतर्मुख था. भगवान पोते पण
परद्रव्य तरफना झूकावथी परमात्मपद नथी पाम्या पण अंतरमां स्वद्रव्यमां लीनताथी ज
भगवाने परमात्मपद साध्युं छे; ने उपदेशमां पण ए ज मार्ग बताव्यो छे के हे जीवो! तमारी
परमात्म शक्ति तमारा आत्मामां ज छे, तेमां अंतर्मुख थाव.....अंतरना अवलोकनथी
परमात्मपद प्रगटे छे.
आ रीते जैनशासनना सेवनथी ज जीव शुद्धरत्नत्रयरूप बोधि पामे छे; ते बोधि त्रण
भुवनमां सार छे. त्रणलोकमां उत्तम सारभूत एवी जे रत्नत्रयरूप बोधि ते जैनशासनना
सेवनथी ज जीव पामे छे, केमके तेनो यथार्थ उपाय जैनशासनमां ज छे, बीजे नथी. आथी
जिनशासननो ज महिमा छे.
प्रश्नः– जो सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्ररूप–शुद्धभाव ते ज धर्म छे, ने शुभराग ते धर्म नथी,
तो समकिती धर्मात्माने पण शुभराग केम थाय छे?
उत्तरः– अरे भाई! जेम समकिती धर्मात्माने अशुभभाव पण आवी जाय छे, तो ते शुं
धर्म छे?–ना; बस! जेम समकितीने अशुभभाव होवा छतां ते धर्म नथी तेम समकितीने
शुभभाव पण थतो होवा छतां ते धर्म नथी; धर्म तो ते अशुभ ने शुभ बंनेथी पार छे, रागरहित
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव ते ज धर्म छे; वीतरागी शुद्धभाव ज जैनधर्म छे.
एम शंका न करवी के समकितीने शुभराग थाय छे माटे तेओ ते शुभरागने धर्म मानता
हशे! समकितीनी तो द्रष्टि ज पलटी गई छे.......तेनुं परिणमन अंर्तस्वभाव तरफ झूकी गयुं छे.
अस्थिरताने कारण राग थतो होवा छतां तेनी द्रष्टिनुं ध्येय पलटी गयुं छे. तेनी द्रष्टिनुं ध्येय तो
शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव ज छे. हुं तो शुद्धज्ञानानंद स्वभाव ज छुं एवी धर्मीनी द्रष्टि राग वखते
पण छूटती नथी. जोके गृहस्थपणामां समकितीने विषयकषाय हजी सर्वथा नथी छूटया पण तेनुं
ध्येय रह्युं नथी, तेनुं ध्येय पलटी गयुं छे, शुद्ध आत्मा ज तेनुं ध्येय छे. अनादिथी ध्येय परमां ने
रागमां ज मान्युं हतुं ते पलटीने हवे शुद्ध आत्माने ज ध्येय बनाव्यो छे. ने आवुं ध्येय
जैनशासन ज बतावे छे माटे जैनशासनना सेवनथी ज यथार्थबोधि (रत्नत्रय) पमाय छे.
अरे जीव! तारा आत्मामां प्रभुता ऊछळे.......ने तारी पामरता नाश पामे एवी अद्भुत
वात आ जैनशासनमां संतोए बतावी छे. माटे हे भाई! एकवार तारी रागनी बुद्धि छोड ने
आ वात समज. आ समज्ये ज तारुं हित छे.
ः ४८ः आत्मधर्मः १४७