मिथ्याद्रष्टिने खरेखर विनय संपन्नता होती नथी. जेने रागनो आदर छे–राग वडे धर्म माने छे ते खरेखर तो देव–
गुरु–शास्त्रनी आज्ञानो अविनय करे छे.
चिदानंदस्वभावनुं ज बहुमान होय छे. हजी सम्यग्दर्शन ज जेने नथी तेने शील के व्रत केवा? अने व्रत वगर
अतिचार रहितपणानी वात कयांथी? सम्यग्दर्शन पछी निरतिचार व्रतादिना शुभराग वडे कोई जीवने तीर्थंकरप्रकृति
बंधाई जाय छे. पण सम्यग्दर्शन वगरनो जीव व्रतादि करे तेनी अहीं वात नथी. सोळेय कारणभावनामां
सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभावनी सळंगता छे, ते शुद्धभाव सहितनो शुभराग ज तीर्थंकरप्रकृतिना बंधनुं कारण थाय छे;
शुद्धभाव वगरना शुभथी तेवी ऊंची पुण्यप्रकृति बंधाती नथी; माटे शुद्धभावनो महिमा छे–एम अहीं बताववुं छे.
कांई बंधनुं कारण नथी, पण वारंवार ज्ञानना विचारमां रहेतां तेनी साथेना शुभरागथी तीर्थंकरप्रकृति बंधाई जाय छे.
समकितीने चिदानंद स्वभावनी द्रष्टिपूर्वकना रागमां जे पुण्य बंधाय छे ते अलौकिक पुण्य छे, ते आराधकभाव
सहितना पुण्यने श्रीमद्राजचंद्रजी ‘सत् पुण्य’ कहे छे. समकितीने ज सत्पुण्य होय छे. छतां समकितीने ते पुण्यनी
मीठास नथी. मिथ्याद्रष्टिने पुण्यनी मीठास छे तेने सत्पुण्य होता नथी.
होय छे ते तीर्थंकरादि प्रकृतिना बंधनुं कारण थाय छे. अने सम्यग्दर्शनादिरूप शुद्धभाव ते मोक्षनुं कारण थाय छे.
तेनी आ वात नथी. सम्यग्दर्शन वगर तो बधुं थोथां छे, तेनी धर्ममां कांई गणतरी नथी. समकिती होय–ने कदाच
विशेष त्यागी न होय–गृहस्थाश्रममां होय–तोय तेने तीर्थंकरप्रकृति बंधाय (श्रेणीकराजावत्); पण मिथ्याद्रष्टि जीव
शुभरागथी बहारमां त्याग करीने तेनाथी तीर्थंकरप्रकृति बांधवा मांगे तो कांई तेने बंधाय नहि. समकितीने पण
त्यागमां जेटलो शुद्धवीतरागभाव छे ते तो कांई बंधनुं कारण नथी पण तेनी साथेना रागथी तीर्थंकरप्रकृति बंधाई
जाय छे–जेने ते प्रकारनी योग्यता होय तेने.
निश्चयतपसहित जे तपनो शुभविकल्प ऊठयो तेनाथी कोई जीवने तीर्थंकर प्रकृति बंधाई जाय छे. सम्यग्दर्शन तो
साथे राखीने ज वात छे.
तेमनी आराधना अने समाधि अखंड टकी रहो–एवो भाव होय छे, आनुं नाम साधुसमाधिभावना छे. रत्नत्रयना
साधक संतो प्रत्ये धर्मीने अंतरथी बहुमान ऊछळी जाय छे, तेमनी सेवानो भाव आवे छे. पोताने तेवा रत्नत्रयनो
घणो प्रेम छे एटले ते भूमिकामां, बीजा रत्नत्रयसाधक धर्मात्माओने पण अखंड समाधि रहे–शांति रहे–ने तेमां
कांई विघ्न न आवे एवी शुभभावना थाय छे, ने एवा उत्तम शुभभाव वडे कोई
ः प२ः