Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष तेरमुंः सम्पादकः पोष
अंक त्रीजो रामजी माणेकचंद दोशी २४८२
* रत्नत्रयनो भक्त *
(नियमसार कलश २२० ना प्रवचनमांथी)
आ भागवतशास्त्रमां परम भक्तिनुं वर्णन करतां आचार्यदेव कहे छे
के–पोताना ज्ञानानंद स्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा–ज्ञान अने रमणता ते
साची भक्ति छे. पोताना चिदानंद स्वभावनी द्रष्टि अने स्वसंवेदन करीने
तेमां लीन थवुं ते ज रत्नत्रयनी परमभक्ति छे, ने तेने ज भगवान धर्म
कहे छे.
भवभयना हरनारा एवा सम्यक्त्वनी, शुद्धज्ञाननी अने चारित्रनी
भवछेदक अतुल भक्ति निरंतर जे जीव करे छे, ते कामक्रोधादि समस्त दुष्ट
पापसमूहथी मुक्त चित्तवाळो जीव–श्रावक हो के संयमी हो–निरंतर भक्त
छे....भक्त छे.
अहो! श्रमणने के श्रावकने द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यतामां क्षणे ने क्षणे
रत्नत्रयनी आराधना वर्ते छे....तेना रोमे रोमे रत्नत्रयनी भक्ति परिणमी
गई छे....तेथी ते भक्त छे–भक्त छे.
जुओ, आ समकितीनुं भजन!! पोताना शुद्धपरमात्मानो आश्रय
करीने तेने ज समकिती भजे छे. परमात्मतत्त्वना भजनथी जे शुद्ध श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र प्रगटे ते ज भवभयनो नाश करनारी भक्ति छे. सर्वज्ञना
मार्गमां जे शुद्धरत्नत्रयने भजे तेने ज भक्त कह्यो छे. जीव ‘रत्नत्रयरूपे
परिणम्यो ते रत्नत्रयनो भक्त छे. ने एवा जीवने, रत्नत्रयना आराधक
बीजा जीवो प्रत्ये वात्सल्य ने बहुमाननो भाव आवे छे.
(–श्राविका ब्रह्मचर्याश्रमना उद्घाटन प्रसंगना प्रवचनमांथी)
वार्षिक लवाजम (१४७) छूटक नकल
त्रण रूपिया चार आना
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)