Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष तेरमुं ः सम्पादकः फागण
अंक पांचमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८२
आ छे जैनशासननो मुद्रालेख–
‘दर्शनशुद्धिथी ज आत्मसिद्धि’
दर्शनशुद्धिमां सात तत्त्वोनी प्रतीत केवी होय....ने ए प्रतीतनुं केटलुं बधुं जोर
छे....ते पू. गुरुदेवे घणी सरस शैलीथी समजाव्युं छे. अहो! श्रद्धानुं बळ अपार छे....
जगतना तमाम तत्त्वोनो निर्णय तेनामां आवी जाय छे. ते दरेक जीवनुं पहेलुं–प्रधान
कर्तव्य छे.
पू. गुरुदेव कहे छे केः समकिती पोताना ज्ञायकस्वभावी आत्माने द्रष्टिमां लईने
तेमां ज आराम करे छे.....आतमराममां रहेवुं ते ज खरो आराम छे...आत्मस्वभावनी
सन्मुखता विना सुख हराम छे.
जेणे शुद्ध आत्माने द्रष्टिमां लईने दर्शनशुद्धि प्रगट करी तेणे भगवानना
उपदेशनो सार ग्रहण कर्यो; जे जीव दर्शनशुद्धि करतो नथी, आत्माने अशुद्ध ज अनुभवे
छे ते जीवे खरेखर भगवानना उपदेशनुं ग्रहण कर्युं नथी. भगवानना उपदेशमां
दर्शनशुद्धि करवानो मुख्य उपदेश छे.
–आ विषयनुं विस्तृत प्रवचन हवे पछी प्रसिद्ध थशे.
वार्षिक लवाजम (१४९) छूटक नकल
त्रण रूपिया चार आना
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)