Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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‘ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव’
[जैन साहित्यमां एक अमूल्य प्रकाशन]
ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव नामनुं एक हिंदी पुस्तक हालमां श्री ‘जैन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ’
तरफथी प्रकाशित थयुं छे, पुस्तकनो विषय जेवो उत्तम छे एवुं ज तेनुं छापकाम, कागळ, बाईन्डींग वगेरे पण उत्तम
छे, अने एक त्रिरंगी सुंदर चित्र पण छे. (पृष्ठ संख्याः लगभग ४००, किंमत रूा. २–८–०) आ पुस्तक सर्वे
मुमुक्षुओने स्वाध्याय माटे खास उपयोगी छे. पुस्तकना विशेष परिचय माटे तेना निवेदननो केटलोक भाग अहीं
आपवामां आवे छेः–
‘जो प्रवचन इस पुस्तकमें प्रसिद्ध हुए है वे वास्तवमें जैन शासन के पुनीत साहित्य में पू. श्री
कहानगुरुदेव की एक महान अमूल्य भेंट है। हम विचारमें पड गये कि इस अमूल्य भेंट को कौन–सा नाम
दिया जाय! अन्तमें बहुत सोचकर इसका नाम रक्खा–‘ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव’ यह नाम क्यों पसन्द
किया इसके बारेंमें थोडा–सा स्पष्टीकरण देखिये–
१– आत्माका ज्ञानस्वभाव है;
२– उसकी पूर्ण व्यक्ति केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता है;
सर्वज्ञता के निर्णय से ज्ञानस्वभावका भी निर्णय हो जाता है [प्रवचनसार गा० ८ वत्]
३– सर्वज्ञता के निर्णयमें सारे ही ज्ञेयपदार्थोके स्वभावगत क्रमबद्ध परिणमनकी प्रतीति भी हो जाती
है, क्योंकि भगवान सब देख रहा है।
–इस तरह ज्ञानस्वभावका व ज्ञेयस्वभावका निर्णय करानेका ही मुख्य प्रयोजन होने से इस अमूल्य
भेंटका नाम ‘ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव’ रक्खा है। इसके निर्णय किये बिना किसी भी तरहसे जीवकी
वीतरागीज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
जो भी मुमुक्षुजीव आत्माका हित साधना चाहता है, उसको उपर्युक्त विषय का यथार्थ अबाधित
निर्णय अवश्य करना ही चाहिए। इसका निर्णय किये बिना सर्वज्ञ के मार्गमें एक डग भी नहीं चला जा
सकता, और उसका निर्णय होते ही इस आत्मा में सर्वज्ञदेवके–मार्गका–मुक्ति के मार्गका–मंगलाचरण हो
जाता है।
इस परसे यह बाता अच्छी़ तरह समझमें आ जायगी कि जिज्ञासु जीवों को यह विषय कितने महत्व
का है! और इसीलिये पू० गुरुदेवने समयसार, प्रवचनसार आदि अनेक शास्त्रोके आधार से, युक्ति–अनुभव से
भरपूर प्रवचनो के द्वारा यह विषय बहुत स्पष्ट करके समझाया है। ऐसा वस्तुस्वरूप समझाकर पू० गुरुदेवने
भव्यजीवोंके उपर महान उपकार किया है।
... ...... ......
...... ओ भारत के भव्य मुमुक्षु जीवो! इस अमूल्य भेंटको पाकर हर्षपूर्वक इसका सत्कार कीजीये
हमारे आत्महितके लिये श्री तीर्थंकर भगवानने परम कृपा करके गुरुदेवके द्वारा यह भेंट अपनेको दी है–ऐसा
मानकर, इसमें कहे हुए अपूर्व गंभीर रहस्य को समझकर, ज्ञायकस्वभाव सन्मुख ही आत्महित के पावन पथ
पर परिणमन करो
.........”