Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जिनशासननो महिमा []
(श्री भावप्राभृत गा. ८०–८१–८२ उपरना प्रवचनोमांथी)
समकिती जीव मुनि थाय पहेलां पण शुद्ध आत्मानी भावना भावे छे
के अहो! हुं शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं,–मारा आत्माना आनंदमां हुं
कयारे लीन थाउ? आत्मामां लीन थईने हुं कयारे रत्नत्रय प्रगट करुं! अहो!
धन्य छे ते दशाने अने ते भावने, के ज्यारे आत्माना आनंदमां लीन थईने
मुनिदशा थशे!
अहो! मुनिवरो आत्माना आनंदमां झूले छे...वारंवार अंतरमां
निर्विकल्प अनुभव करे छे...बाह्यद्रष्टि जीवोने ए मुनिदशानी कल्पना आववी
पण मुश्केल छे. मुनिओने अंतरमां आत्माना आनंदनो सागर ऊछळ्‌यो
छे......उपशम रसनी भरती आवी छे.
जैनधर्मनी श्रेष्ठता ए रीते छे के ते भावि–भवनो नाश करे छे;
संसारनो नाश करीने मुक्ति आपे छे–एथी ज जैनधर्मनो महिमा छे. आ
सिवाय बीजी रीते–पुण्य वगेरेथी जैनधर्मनो महिमा माने तो तेणे
जैनशासनने जाण्युं ज नथी......
आहा! जैनधर्म शुं चीज छे तेनी वात लोकोए यथार्थ सांभळी पण
नथी. एक क्षण पण जैनधर्म प्रगट करे तो अनंत भवनो ‘कट’ थई जाय, ने
आत्मामां मोक्षनी छाप पडी जाय,–मुक्तिनी निःशंकता थई जाय.–आवो
जैनधर्म छे. माटे हे भव्य! भवना नाश माटे तुं आवा जैनधर्मने भाव.
हजी तो अनंतभवनी शंकामां जे पडयो होय,–अरे! भव्य–अभव्यनी
पण शंकामां पडयो होय–एवा जीवने तो जैनधर्मनी गंध पण आवी नथी.
हवे कहे छे के हे मुनि! बार प्रकारनां तप वगेरे पण भावशुद्धि निमित्ते ज छे, माटे
भावविशुद्धि निमित्ते तुं ते तप वगेरेने भाव.
भावविशुद्धि एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र, ते तो शुद्ध ज्ञायकस्वभावना ज अवलंबने
छे; ते विशुद्धता निमित्ते तुं बार प्रकारना तपने के
फागणः २४८२ ः ७७ः