मुख्यता राख, अने ज्ञानरूपी अंकुश वडे मदोन्मत्त मनरूपी हाथीने वश कर; जे मन बाह्य
विषयोमां भमे छे तेने ज्ञाननी एकाग्रतारूप अंकुश वडे अंतरमां वाळ. चैतन्यस्वभावनी
सन्मुखतामां शुद्धभाव थतां बार प्रकारनां तप वगेरे सहेजे थई जाय छे. अंतरमां
चैतन्यस्वभावना अवलंबन वगर शांति के शुद्धता थाय नहि. “ हुं अनंतशक्तिनो चैतन्यपिंड
आत्मा छुं”–एम अंतर्मुख लक्ष करीने एकाग्र थवुं ते शांतिनो ने भावशुद्धिनो उपाय छे. आवी
भावशुद्धि विना तप वगेरेने यथार्थ कहेवाय नहीं. केमके आत्मस्वभावमां एकाग्रता विना
विषयोनो निरोध खरेखर थाय नहीं. माटे ज्ञानअंकुश वडे मनने वश करवानी वात करी, एटले
ज्ञानने अंतर्मुख करवानुं कह्युं. हे उत्तम मुनि! तारो मनरूपी हाथी मोहथी मदोन्मत्त थईने
बहारमां विषयकषायोनो चारो चरवा न जाय, ने अंतरमां आनंदनो चारो चरे ते माटे तुं
ज्ञानरूपी अंकुश वडे तेने वश कर, एटले के तारा ज्ञानने अंतरमां वाळीने शुद्धआत्मामां एकाग्र
कर. तपश्चरणादिकनो उपदेश पण अंतरमां एकाग्रतारूप भावशुद्धिने माटे ज छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध निर्मळदशा अंतरंगमां थई छे ते तो मुनिनुं भावलिंग छे.
आवी भावशुद्धिपूर्वक वस्त्रादि रहित दिगंबरदशा, भूमिशयन, पंचमहाव्रत वगेरे होय छे ते
द्रव्यलिंग छे. आ रीते द्रव्यथी ने भावथी निर्दोष जिनलिंग होय त्यां ज मुनिदशा छे.
प्रगट करीने चिदानंदस्वभावमां लीन थवानी लायकात थई ने ते प्रकारना कषायो टळी गया त्यां
वस्त्र राखवानी वृत्ति रहेती नथी, एटली निर्विकारी दशा थई जाय छे के वस्त्रथी शरीरने
ढांकवानी वृत्ति रहेती नथी.–आवी जिनमुनि दशा होय छे.
ते सिवाय बीजे बधेथी कर्तापणुं–स्वामीपणुं ऊडी गयुं छे. आवी द्रष्टि वगर तो मुनिपणुं के
धर्मीपणुं कदी कोईने न होय.
सातमा गुणस्थानरूप मुनिपणुं तो न ज होय.