Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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कह्युं छे. ज्यां वस्त्रादिनो सर्वथा त्याग नथी तेमज अंतरमां शुद्धरत्नत्रयनो भाव नथी त्यां
जिनशासननुं मुनिपणुं होतुं नथी. जिनशासनथी विपरीत मुनिदशा मनावे तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे.
मोक्षनुं साधन जे शुद्ध रत्नत्रय, ते रत्नत्रयना धारक मुनिवरो मुख्यपणे तो
वनजंगलमां–गिरि–गुफामां ज रहे छे, दिवसमां एक ज वार विधिपूर्वक निर्दोष आहार करे छे,
भूशयन करे छे, तथा द्रव्ये अने भावे संयम पाळे छे. अंतरमां भावसंयम होय ने बहारमां
द्रव्यसंयम न होय एटले के गृहवासमां रहेता होय ने छतां मुनिपणुं होय–एम कदी बनतुं नथी.
वळी जिनशासनमां मुनि केवा छे? के पूर्वे जे शुद्धस्वभावनी भावना भावी छे तेनो
वारंवार अनुभव करे छे. पहेलेथी ज शुद्धआत्माना भानसहित सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
शुद्धभावनी भावना भावी छे, रागनी भावना नथी भावी पण शुद्धतानी ज भावना भावी छे;
हुं परद्रव्योथी भिन्न तेमज परभावोथी पण भिन्न शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा छुं–एवी
आत्मभावना पहेलेथी भावी छे; ते पूर्व–भावित भावना भावीने मुनिदशामां वारंवार
शुद्धात्मानो अनुभव करे छे. जुओ, आ मुनिनी दशा!! मुनिदशा कहो के जिनलिंग कहो के
मोक्षमार्ग कहो,–तेनी आवी दशा छे. जेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध भाव–छे एवुं
जैनधर्मनुं चिह्न छे.
जडथी जुदो, कर्मथी जुदो, ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे, तेनी वारंवार भावना समकित जीव
भावे छे, ने मुनि थया पछी तेनो वारंवार अनुभव करे छे. पहेलां तो जेने शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप
आत्मानुं भान ज न होय ते तेनो वारंवार अनुभव कयांथी करे? अने शुद्ध आत्माना वारंवार
अनुभव विना मुनिदशा होय नहीं. मुनि थया पहेलां पण ते शुद्धआत्मानी ते भावना भावी छे
के अहो! हुं शुद्ध ज्ञानानंद–स्वरूपआत्मा छुं, आवा आत्माना आनंदमां हुं कयारे लीन थाउं!
आत्मामां लीन थईने हुं कयारे रत्नत्रय प्रगट करुं! अहो! धन्य छे ते दशाने अने ते भावने, के
ज्यारे आत्माना आनंदमां लीन थईने मुनिदशा थशे! मुनि थया पहेलां आवी भावनाओ
आत्मभान सहित भावी छे. हवे मुनि थतां पूर्वे भावेली ते भावना भावीने वारंवार आनंदना
अनुभवमां लीन थाय छे, अंतरमां लीनताथी सम्यग्दर्शन–ज्ञानचारित्ररूप परिणति थई गई छे.
अहो! मुनिवरो आत्माना आनंदमां झूले छे, वारंवार अंतरमां निर्विकल्प अनुभव करे छे.
बाह्यद्रष्टि जीवोने ए मुनिदशानी कल्पना आववी पण मुश्केल छे. मुनिने बाह्यदशा तो तद्न
नग्नदिगंबर ज होय छे ने अंतरमां आत्मानी शांतिनो सागर ऊछळे छे....आनंदनो सागर
ऊछळे छे...उपशमरसनी भरती आवी छे. हजी महाव्रतादिनी शुभवृत्ति ऊठे छे पण तेने
ज्ञानस्वभावथी भिन्न जाणे छे. शुभरागनी भावना नथी पण शुद्ध चैतन्यनी ज भावना छे....ने
ते भावनाना जोरे अंतरमां लीन थईने चैतन्यना कपाट खोली नाख्या छे....चैतन्यना कपाट
खोलीने अंदरथी ज्ञान ने आनंद बहार काढया छे. अंतरमां आवा शुद्धभाव सहितनी मुनिदशा
होय छे, अने आवो शुद्धभाव ते ज मोक्षनुं कारण छे. अंतरमां आवा शुद्धभाव विना एकलो
शुभभावथी महाव्रतादि पाळे–द्रव्यलिंग धारे–तो ते फक्त पुण्यना आस्रवनुं कारण छे, पण तेमां
धर्म नथी. माटे आचार्यदेवे कह्युं के पूर्वे जे शुद्धआत्मा जाण्यो हतो ने तेनी भावना भावी हती
तेनी वारंवार भावना अने अनुभव करीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव
फागणः २४८२ ः ७९ः