अने वळी शुभरागने धर्म कहेवो–ए बे वात एक बीजाथी विरुद्ध छे; रागना अंश मात्रनो पण पोषक जैनधर्म नथी.
पहेलां तो शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि वडे श्रद्धामां रागनो अभाव करे, अने पछी ते शुद्ध चैतन्यपरिणतिवडे रागने
जीते ते जैनधर्म छे. पण जे रागवडे धर्म मनावे तो ते जैन नथी, ते तो रागनो पोषक छे. वीतरागी रत्नत्रयवडे
राग–द्वेष–मोहने जीतीने ज्ञानानंदस्वरूपमां रहे ते जैन छे.
“जे जीते ते जैन”–एटले शुं?
जीतनार तो आत्मा छे.
जेने जीतवाना छे ते राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्ध भाव छे.
तेने कई रीते जीताय?
के आत्माना शुद्ध स्वभावने श्रद्धा–ज्ञानमां लईने तेमां लीन थतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव
प्रगटे छे ने अनादिना राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्ध भावोनो नाश थई जाय छे.
आ रीते, शुद्धआत्माना अवलंबने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव वडे राग–द्वेष–मोहभावने जे
जीते ते ज जैन छे; एने ज जिनशासनमां धर्म कह्यो छे. आ सिवाय रागनो एक अंश पण रहे तेने भगवाने धर्म
कह्यो नथी.
सौथी पहेलां, परथी भिन्न ने पोताना ज्ञान–आनंद स्वभावथी एकरूप एवा शुद्धआत्मानी श्रद्धा करीने
सम्यग्दर्शन प्रगट करतां अनादिना मिथ्यात्वरूप मोहनो तथा अनंतानुबंधी राग–द्वेषनो नाश थई जाय छे, अने
त्यारथी आत्मामां जैनधर्मनी शरूआत थाय छे.
धर्म तो मोह–क्षोभ रहित एवा शुद्ध परिणाम छे, आत्माना शुद्धपरिणाम सिवाय बहारमां बीजे कयांय धर्म
नथी, के बीजुं कोई मोक्षनुं कारण नथी. मोह–क्षोभ रहित एटले के मिथ्यात्व अने अस्थिरताथी रहित जीवना
परिणाम ते धर्म छे, एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव ते धर्म छे.
संतोना कथनमां ज्यां जुओ त्यां एक ज धारा छे. प्रवचनसारनी सातमी गाथामां पण कह्युं छे के चारित्र ते
धर्म छे, धर्म ते साम्य छे, अने साम्य ते जीवना मोह–क्षोभ रहित परिणाम छे. अहीं पण कहे छे के जीवना मोह–
क्षोभ रहित परिणाम ते धर्म छे. वच्चे राग होय ते धर्म नथी.
एक ‘पापरिणामी’ अधर्मी, ने बीजा ‘पुण्यपरिणामी’ – अधर्मी.
जेम हिंसादिक भावो ते पाप छे, ते धर्म नथी, तेम अहिंसादिक शुभभावो ते पुण्य छे, ते धर्म नथी. जेओ
तीव्र हिंसा विषय–कषाय, कुदेव–कुगुरुनुं सेवन वगेरे पाप भावमां ज लीन छे तेओ तो ‘पापी–अधर्मी’ छे, अने
जेओ अहिंसा–व्रत–पूजा वगेरे शुभभावने धर्म मानीने तेमां ज लीनपणे वर्ते छे तेओ ‘पुण्य परिणामी–अधर्मी’
छे. बंने अधर्मी छे.–एक पाप परिणाममां डुबेला, ने बीजा पुण्यपरिणाममां अटकेला. जे जीव पुण्य–पाप रहित
आत्माना स्वभावने श्रद्धे छे–प्रतीत करे छे–अनुभवे छे ते ज धर्मात्मा छे, ने ते ज तरे छे.
धर्म तेने कहेवाय के जेनाथी भवनो अंत आवे.
धर्म तेने कहेवाय के जेनाथी भवना नाशनी निःसंदेहता थई जाय.....ने भवनो भय टळी जाय. ज्यां भवना
नाशनी निःशंकता नथी त्यां धर्म थयो ज नथी. ए निःशंकता कोण आपे? आत्मानो भवरहित चैतन्य स्वभाव
समजे तो भवना नाशनी निःशंकता पोताना आत्मामांथी ज प्रगटे. ए सिवाय पुण्यमां एवी ताकात नथी के भवनो
नाश करावे......के निःशंकता आपे.
हजी तो जे आत्माने मानता नथी, जेने पापनो डर नथी, परलोकनी श्रद्धा नथी–अने एकला पापमां ज
डुबेला छे, ते तो पापीष्ठ छे, एवा जीवनी तो शुं वात! परंतु जेओ कंईक आस्थावाळा छे–आत्माने माने छे–
परलोकने माने छे ने पापथी कंईक डरीने, पुण्यमां धर्म मानीने त्यां ज रोकाई गया छे पण रागरहित शुद्धआत्मानी
प्रतीत करता नथी, तेओ पण मिथ्याद्रष्टि अधर्मी ज छे. तेओ पण चारगतिना भवभ्रमणथी छूटता नथी. अहीं तो
अपूर्व धर्मनी वात छे के जेनाथी भवनो अंत आवे.........ने मुक्ति थाय.
जैनं जयति शासनम्।
ः १७२ः आत्मधर्मः १प३