तेमज अनंतानुबंधीकषायरूप क्षोभनो नाश थयो,–त्यां जिनशासननी शरूआत थई, मोह अने क्षोभना अभावरूप
जे सम्यग्दर्शनादि शुद्धपरिणति थई तेनुं नाम धर्म छे. आवा शुद्धभाव वडे जिनशासनने ओळखवुं......ज्यां
सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव छे त्यां ज जिनशासन छे.
लौकिजनो तथा अन्यमतिओ ज पुण्यने धर्म माने छे, जिनमत नहि.
आ गाथाना भावार्थमां आजथी दोढसो वर्ष पहेलां पं. जयचंद्रजी लखे छे के “लौकिकजन तथा अन्यमति
केई कहे हैं जो–पूजा आदिक शुभक्रिया तिनि विषें अर व्रतक्रिया सहित है सो जिनधर्म है,–सो ऐसैं नांही है।
जिनमत में जिन भगवान ऐसैं कह्या है जो पूजादिक विषै अर व्रत–सहित होय सो तौ पुण्य है.......”
(अष्टप्राभृत नवी आवृत्ति पृष्ठ २१३) पूजाव्रतादिनो शुभराग ते पुण्य छे; लौकिकजनो तथा अन्यमतिओ ज तेने
धर्म माने छे, पण जिनशासनमां तो तेने धर्म नथी कह्यो.
जीवदयानो राग ते जैनधर्म नथी, पण पुण्य छे.
लौकिकजनो के अन्यमतिओ एम माने छे के जैनधर्ममां लीलोतरी वगेरेनी दया पाळवानुं कह्युं छे–माटे
जैनधर्मनी श्रेष्ठता छे.–पण ए कांई जैनधर्मनुं खरुं स्वरूप नथी. अहिंसादि व्रतमां परजीवनी दयानो शुभ भाव के
भगवाननी पूजा वगेरेनो शुभभाव–तेना वडे ज बाह्यद्रष्टि लोको जैनधर्मने ओळखे छे, पण ते खरेखर जैनधर्म
नथी; ते तो पुण्य छे, बंधन छे.
कोई पर जीवने न मारवानुं कह्युं ते जिनशासननी महत्ता छे–एम मिथ्याद्रष्टिओ माने छे. पर जीवनी दया
पाळवानो शुभराग ते धर्म–एम जे माने छे ते मिथ्यात्वना पोषक छे; केमके राग ते जैनधर्म नथी, जैनधर्म तो
वीतरागभाव छे.
जिनशासनो अहिंसा – धर्म
‘भाई जगतमां जैनोनी अहिंसा बहु ऊंची! जैनधर्म तो अहिंसावादी छे.’–ए वात साची, पण अहिंसानुं
स्वरूप शुं छे तेनी लोकोने खबर नथी. जिनशासनमां अहिंसानुं स्वरूप तो आ प्रमाणे कह्युं छेः राग–द्वेष–मोहरूप
भाववडे जीवना चैतन्य प्राणनो घात थाय छे तेथी ते राग–द्वेष–मोहरूप भाव ज हिंसा छे, अने ते राग–द्वेष–
मोहरूप हिंसकभावोनी उत्पत्ति ज न थवी तेनुं नाम अहिंसा–धर्म छे. आवो अहिंसाधर्म कयारे थाय?–के
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागभाव प्रगटतां राग–द्वेष–मोहभावनी उत्पत्ति अटके, माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप जे वीतरागी शुद्धभाव छे ते ज जिनशासननो अहिंसाधर्म छे; ने आवी यथार्थ अहिंसा जिनशासनमां ज
छे तेथी जिनशासननी श्रेष्ठता छे. पर जीवनी दयानो शुभराग ते कांई अहिंसाधर्म नथी; एकला परदयाना
शुभरागने जे अहिंसाधर्म माने छे ते जिनशासनने जाणतो नथी, ते लौकिकजन एटले के मिथ्याद्रष्टि छे एम जाणवुं.
अहो, जैनधर्म, तारो महिमा!
अहो, जैनधर्म तो वीतरागी छे. आवा धर्मना निर्णयमां उग्र पुरुषार्थ जोईए, उग्र ज्ञान जोईए. रागथी
पार थईने ज्ञानना अपूर्व अंतर–उद्यमवडे ज आवा जैनधर्मनो निर्णय थाय छे. एक क्षण पण जैनधर्मने अंगीकार
करे तो अल्पकाळमां जरूर मुक्ति पामे,–एवो जैनधर्मनो महिमा छे. आ माटे आत्माना स्वभावनी झंखना
(लगनी) अने रुचिनी तल्लीनता जोईए. जेना अंतरमां रागनी जराक पण मीठास पडी छे ते जीव वीतरागी
जैनधर्मनो निर्णय करी शकतो नथी. आंखमां कणुं तो कदाचित् समाय, परंतु धर्ममां रागनो अंश पण न समाय,
धर्ममां राग नहि ने रागमां धर्म नहि, बंने चीज जुदी छे. धर्मनी भूमिकामां साथे राग पण होय, परंतु जे राग छे
तो पोते धर्म नथी.
जिनशासन सिवाय अन्य कोई मतमां तो धर्म छे ज नहीं, ते तो बधा धर्मथी विपरीत छे, तेमनी वात तो
दूर गई, परंतु जिनशासनमां पण पुण्यना भावने भगवाने धर्म नथी कह्यो. जिनशासनमां कहेला व्यवहार प्रमाणे
भगवाननी पूजा, व्रतादि शुभराग करे छे अने ते रागथी ज पोताने जे धर्मीपणुं माने छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे,
जिनशासनना खरा स्वरूपनी तेने खबर नथी.
तो धर्म शुं छे?
जैनधर्म तो शुद्धआत्मपरिणाम वडे रागादिने जीतनार छे, एटले के जैनधर्म तो रागनो नाशक छे पण
रागनो पोषक नथी. जो रागने धर्म कहो तो, जैनधर्म रागनो नाशक कयां रह्यो? जैनधर्मने रागनो नाशक कहेवो
अषाढः २४८२ ः १७१ः