जेना अंतरमां रागनी जराक पण मीठास पडी छे ते जीव वीतरागी जैनधर्मनो
एवी ताकात नथी के भवनो नाश करावे......के निःशंकता आपे.
भक्ति–बहुमाननो शुभभाव पण नथी ने एकला पापभावमां ज डुबेला छे, तेनी तो अहीं वात ज नथी, केम के तेने
तो आत्माना हितनी दरकार ज नथी ने ते तो आवो उपदेश सांभळवा पण नवरो थतो नथी. अहीं तो जेने
आत्मानुं हित करवानी कंईक भावना जागी छे, वीतरागी देव–गुरु–धर्म तरफ भक्तिबहुमानपूर्वक वलण थयुं छे,
तेने धर्मनुं वास्तविकस्वरूप समजावे छे. समजीने पोतानुं हित करवा मांगे छे तेने समजावे छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे शुद्धभाव छे ते ज धर्म छे–ते ज मोक्षनो साधक छे; ने जे राग छे ते तो बाधक भाव
छे–दोष छे. धर्मी पोते तेने धर्म तरीके मानता नथी. रागने जे धर्म माने छे तेने तो श्रद्धा–ज्ञान पण खोटां छे एटले
तेने तो एकान्तअधर्म छे, धर्म शुं छे तेनी तेने खबर ज नथी. ज्यां सम्यग्द्रष्टिना शुभरागने पण पुण्यबंधनुं कारण
कह्युं छे तो मिथ्याद्रष्टिनी शी वात!! सम्यग्द्रष्टिने पण शुभराग ते धर्मनुं कारण नथी तो मिथ्याद्रष्टिने शुभराग ते
धर्मनुं साधन केम थाय? दया–दान वगेरेना शुभपरिणामथी मिथ्याद्रष्टिने परितसंसार थई जाय–एवो उपदेश
जिनशासननो नथी, पण मिथ्याद्रष्टिनो छे. उपासक–अध्ययनमां श्रावकोना आचारना वर्णनमां व्रतोनुं, तेमज
जिनदेवनी भक्ति–पूजा, गुरुनी उपासना, स्वाध्याय, दान वगेरेनुं जे वर्णन छे ते बधोय शुभराग पण पुण्य छे, ते
धर्म नथी. धर्म तो अंर्तस्वभावमांथी प्रगटेलो मोह–क्षोभरहित शुद्धभाव छे.