उपदेश छे ते पण जीवोना हितने माटे ज छे, पुण्यथी धर्म नथी माटे पुण्य छोडीने पापमां जवुं–एम कांई नथी कहेता,
नीचे जवानुं नथी कहेतां; पण पुण्य ते धर्म नथी एम कहीने रागरहित चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणता
करवानुं कहे छे एटले के ऊंचे ऊंचे लई जाय छे. आ रीते संसारमार्गथी छोडावीने मोक्षमार्गमां लई जवा माटे
भगवाननो उपदेश छे, अहितमार्गथी छोडावीने हितमार्गमां जोडवानो भगवाननो उपदेश छे. छतां तेनो ऊंधो अर्थ
लईने, ‘पुण्य ते धर्म नथी माटे पुण्य छोडीने पाप करवानुं कहे छे’–एम जे माने ते तो मोटो स्वछंदी अनंत
संसारमां रखडनार छे, तेनामां तो भगवाननो उपदेश सांभळवानी पण लायकात नथी. भगवाननी वाणी तो
जीवोना हित माटे ज छे–धर्मवृद्धि माटे ज छे, जीवोने संसारथी छोडावीने मोक्षमां लई जवा माटे ज भगवाननो सर्व
उपदेश छे. जिज्ञासु–आत्मार्थी तो एम विचारे छे के अहो, ‘पुण्य ते धर्म नथी’ एम कहीने भगवान मने रागथी
पण पार मारो चैतन्यस्वभाव बतावीने तेनो अनुभव कराववा मांगे छे. आ रीते स्वभाव सन्मुख थईने
वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करीने ते पोतानुं हित साधे छे.
हित छे, रागमां तारुं हित नथी. हजी शरूआतमां राग सर्वथा न टळी जाय, धर्मीनेय राग तो थाय, पण पहेलां
आवी ओळखाण करवी जोईए के आ राग मारा स्वभावथी जुदी जात छे, तेमां मारुं हित नथी, मारुं हित तो
सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावमां ज छे–आम बराबर समजे तो शुद्धभाव प्रगटाववानो ने राग टाळवानो उद्यम करे; पण
रागने ज हितरूप मानी ल्ये तो ते रागने टाळवानो उद्यम केम करे? माटे हे भाई, तारुं हित कयां छे ते तो नक्की
कर. हितनो उपाय जाण्या विना, अनादिथी अहितने ज हित मानीने तेनुं सेवन कर्युं छे, पण हजी सुधी जराय हित
थयुं नथी. माटे अहीं संतो हितनो साचो उपाय बतावे छे.
हितोपदेश नथी. जिनशासनमां आत्मानो ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण स्वभाव बतावीने तेनी श्रद्धा–ज्ञान ने तेमां
लीनता करवानो उपदेश छे ने ते ज खरो हितोपदेश छे. पुण्यनो शुभराग ते पण चारित्रमोहनो प्रकार छे, ते मोहमां
हित केम होय?–ते धर्म केम होय? तेने जैनशासन केम कहेवाय? जिनशासनमां तो मोहरहित शुद्धात्मपरिणामने ज
धर्म कह्यो छे, तेमां ज हित छे, ने ते ज जिनशासन छे.