Atmadharma magazine - Ank 153
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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नादि) वर्ते छे तेटलो धर्म छे, ते जिनशासन छे, ने जे व्रतादिनो राग कह्यो छे ते धर्म नथी पण पुण्य छे; पुण्यने
जिनशासनमां धर्म नथी कह्यो, मोह–क्षोभ रहित जे शुद्धचैतन्य परिणाम तेने ज धर्म कह्यो छे.
हैयुं हेठुं राखीने शांतिथी सांभळ, भाई!
छठ्ठा गुणस्थाने भावलिंगीसंत मुनिने पंचमहाव्रतनी जे शुभवृत्ति ऊठे ते पण धर्म नहि;–आ वात सांभळे
त्यां अज्ञानी तो भडकी ऊठे छे. तेने रागनी रुचि छे एटले ते भडकी ऊठे छे. पण भाई! तुं धीरो था....हैयुं हेठुं
राखीने शांतिथी आ वात सांभळ. रागथी पार चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेनी तने खबर नथी ने तें रागने ज धर्म
मान्यो छे. पण भाई, राग तो तारा वीतरागी चैतन्यस्वभावथी विरुद्धभाव छे, तेमां तारो धर्म केम होय?
पंचमहाव्रतनी वृत्ति वखते पण मुनिओने अंतरमां ते वृत्तिथी पार ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धाज्ञान लीनताथी
जेटलो मोहनो ने रागनो अभाव थयो छे तेटलो धर्म छे, ते मोक्षनुं कारण छे, ने जे राग रह्यो छे ते धर्म नथी.
जेने आत्माना अमृतना स्वादनी खबर नथी एवा अज्ञानीओ झेरना
घडाने अमृतनो घडो माने छे.
अज्ञानीने तो धर्मनो अंश पण नथी; ते शुभरागथी व्रतादि पाळे तो ते पुण्यनुं कारण छे; समयसारमां तो
तेने विषकुंभ एटले के झेरनो घडो कह्यो छे; अने समकितीने अंशे वीतरागभावरूप सम्यग्दर्शनादिधर्म प्रगटयो होवा
छतां, तेने पण व्रत–पूजादिनो जे शुभभाव छे ते तो पुण्यनुं ज कारण छे, ने समयसारमां तो तेने पण निश्चयथी
विषकुंभ कह्या छे. शुद्धआत्माना अनुभवने ज अमृतकुंभ कह्यो छे.
समयसार–मोक्षअधिकारमां, जे शुभरागरूप प्रतिक्रमणादिने व्यवहारशास्त्रो अमृत कहे छे तेने निश्चयथी झेर
कह्युं छे.–एटले शुं? के जेने आत्माना चिदानंदी स्वभावनुं भान थयुं छे, अतीन्द्रिय अमृतनो अनुभव थयो छे पण
हजी तेमां लीन थईने ठर्यो नथी त्यां वच्चे जे व्यवहारप्रतिक्रमणादिनो शुभराग आवे छे ते निश्चयथी झेरकुंभ छे,
केमके तेमां आत्मानुं निर्विकल्प अमृत लूंटाय छे. जुओ, आ कुंदकुंदआचार्यदेवनी वाणी छे; तेमनी तो कोई अद्भुत
रचना छे! व्यवहार करतां करतां धर्म थशे एम मानीने जे रागनी मीठास वेदे छे ते जीव झेरना स्वादमां मीठास
माने छे, आत्माना अतीन्द्रिय आनंदरूप अमृतना स्वादनी तेने खबर नथी.
मोक्षअधिकारमां शिष्य पूछे छे के प्रभो! आप तो पहेलेथी ज शुद्धआत्मानुं अवलंबन ज करवानुं बतावो
छो, पण त्यां सुधी तो अमे नथी पहोंची शकता, माटे पहेलां तो अमने आ शुभरागरूप व्यवहार ज करवा द्यो ने!
व्यवहार करतां करतां शुद्धआत्माना आनंदना अनुभवरूप अमृतपद पमाशे! माटे अमारे तो व्यवहार ते ज
अमृतनो घडो छे.
त्यां आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! तारो मानेलो व्यवहार तो एकलो झेरनो ज घडो छे, तेने तो अमे
व्यवहारे पण अमृत नथी कहेतां. अंतर्मुख थईने, रागरहित शुद्धआत्माना अतीन्द्रियआनंदनो अनुभव थाय ते
साक्षात् अमृतकुंभ छे,–ते ज निश्चयथी अमृत छे, अने एना लक्षपूर्वक व्यवहार प्रतिक्रमणादिनो जे शुभभाव धर्मीने
आवे छे तेने व्यवहारे अमृत कह्युं होवा छतां निश्चयथी तो ते पण विषकुंभ ज छे. जेने आचार्यदेवे विषकुंभ कह्यो
तेने जैनशासन केम कहेवाय? राग ते जैनशासन नथी, जैनशासन कहो, जिनेन्द्रदेवनो उपदेश कहो, के भगवाननी
आज्ञा कहो,–राग करवानी वीतराग भगवाननी आज्ञा केम होय? वीतराग भगवान रागने धर्म केम कहे?
जिनशासनमां कयांय पण रागथी धर्म थाय एवो भगवाननो उपदेश छे ज नहीं. वीतरागीश्रद्धा, वीतरागी ज्ञान, ने
वीतरागी आचरणरूप शुद्धभावने ज जिनशासनमां भगवाने धर्म कह्यो छे अने ते ज भाविभवभंजक छे, पुण्यमां
भावि–भवनुं भंजन करवानी ताकात नथी.
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आत्मधर्मः १प३