लौकि जन
जैनधर्मना नामे पण घणा लोको पुण्यने धर्म माने छे. शुभराग करतां करतां धर्म थशे एम माने छे एटले
रागवडे जिनशासननो महिमा माने छे, तेनो अहीं आचार्यदेव खुलासो करे छे के अरे भाई! जिनेश्वरदेवे तो
जिनशासनमां ते रागने धर्म नथी कह्यो लोकोत्तर एवो जे जैनमार्ग तेमां तो व्रत–पूजादिना शुभरागने पुण्य कह्युं छे,
तेने धर्म नथी कह्यो, परंतु लौकिकजनो तेने धर्म माने छे. भावार्थमां तो पंडित जयचंद्रजीए (दोढसो वर्ष पहेलां),
व्रत–पूजादिने जे धर्म माने छे तेने स्पष्टपणे लौकिकजन तथा अन्यमति कह्या छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
वीतरागभाव ते ज धर्म छे, ते ज भवना नाशनुं कारण छे, ने तेनाथी ज जिनशासननी श्रेष्ठता छे.
शुद्धात्माना अनुभवमां जिनशासन
अज्ञानी पोकार करे छे के शुं पुण्य ते जैनधर्म नथी?–तो अहीं बेधडक कहे छे के ना, नथी. रागद्वेष–
मोहरहित शुद्धपरिणाम ते ज जैनधर्म छे. आचार्यदेवे समयसारनी १प मी गाथामां पण स्पष्ट कह्युं छे के जे
शुद्धआत्मानी अनुभूति छे ते समस्त जिनशासननी अनुभूति छे. अबद्धस्पृष्ट–अनन्य–नियत–अविशेष अने
असंयुक्त एवा स्वभावरूप शुद्धआत्माने जे देखे छे ते समस्त जिनशासनने देखे छे.–बस! शुद्धआत्माना
अनुभवमां आखुं जिनशासन आवी गयुं?–हा. एमां ज जिनशासन आवी गयुं ने एमां ज जैनधर्म समाई गयो.
अहो, एक समयसारनी पंदरमी गाथा अने बीजी आ भावप्राभृतनी ८३ गाथा,–एमां तो आचार्यदेवे
आखा जैनशास्त्रनो नीचोड भरी दीधो छे. आ बे गाथानुं रहस्य समजे तो बधा प्रश्नोनो नीकाल थई जाय. आमां
तो अलौकिकभावो भर्या छे.
अरे, अत्यारे तो “जैन” कुळमां जन्मेलाने पण जैनधर्मना स्वरूपनी खबर नथी, बहारनी क्रियामां के
पूजा–व्रतनां शुभरागमां ज धर्म मानी बेठा छे, पण ते कांई जैनधर्मनुं स्वरूप नथी. तेथी आचार्यदेवे आ गाथा
मूकीने खास खुलासो कर्यो छे के व्रत–पूजानो शुभराग ते जैनधर्म नथी, जैनधर्म तो मोह–क्षोभ वगरनो एवो
वीतरागभाव छे. आ समज्या विना ‘अमारो जैनधर्म ऊंचो’ एम भले बोले, पण भाई, तुं पोते तो पहेलां
जैनधर्मनुं स्वरूप समज, जैनधर्मनी श्रेष्ठता कई रीते छे ते ओळखीने तेनुं ग्रहण कर, तो तारुं हित थाय.
जिनशासनमां जिनवरोए आम कह्युं छे –
आचार्यदेव तीर्थंकर भगवंतोनी साख आपीने कहे छे के ‘जिनैः शासने भणितम्’ अनंता तीर्थंकरो
जिनशासनमां थया, अत्यारे पण महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधरभगवान वगेरे २० तीर्थंकरो बिराजे छे, ते तीर्थंकर
भगवंतोए जिनशासनमां आम कह्युं छे; –
शुं कह्युं छे? के “पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि” पूजादिकमां अने व्रत सहित होय तो ते पुण्य छे. तो
भगवाने धर्म कोने कह्यो छे? के “मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः”–मोह–क्षोभ रहित आत्माना
परिणाम ते धर्म छे–एम जिनेन्द्र भगवंतोए जिनशासनमां कह्युं छे. आथी बीजी रीते माने, एटले के रागने–
पुण्यने धर्म माने, तो ते भगवानना जिनशासननुं स्वरूप समज्यो नथी.
धर्मीनां व्रत ते पुण्य के धर्म?
अहीं व्रतसहितने पण पुण्य कह्युं; तेमां व्रत कहेतां श्रावकना अणुव्रत के मुनिओनां महाव्रत ए बंने आवी
जाय छे. खरा व्रत सम्यग्दर्शन पछी पांचमां–छठ्ठा गुणस्थाने ज होय छे. अज्ञानी–मिथ्याद्रष्टिने खरा व्रत होता नथी.
अज्ञानीने तो धर्मनुं भान नथी; परंतु सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने पण व्रतादिनी जे शुभवृत्ति ऊठे ते पुण्यबंधनुं कारण छे,
ते धर्म नथी. जेटलो अरागभाव (सम्यग्दर्श–
अषाढः २४८२
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