Atmadharma magazine - Ank 153
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जिनशासननो महिमा []
(श्री भावप्राभृत गा. ८३ उपरनां खास प्रवचनो)
अहो! एक समयसारनी पंदरमी गाथा अने बीजी आ भावप्राभृतनी
८३ मी गाथा,–एमां आचार्यदेवे आखा जैनशासननो नीचोड भरी दीधो छे.
आ बे गाथानुं रहस्य (गुरुगमे) समजे तो बधा प्रश्नोनो नीकाल थई जाय.
भगवाननी वाणी जीवोना हितने माटे ज छे. जिज्ञासु–आत्मार्थी तो
एम विचारे छे के अहो, ‘पुण्य ते धर्म नथी.’ एम कहीने भगवान मने
रागथी पण पार मारो चैतन्यस्वभाव बतावीने तेनो अनुभव कराववा
मांगे छे. आ रीते स्वभाव सन्मुख थईने ते पोतानुं हित साधे छे.
– पू. गुरुदेव.
आ भावप्राभृत वंचाय छे. ८२ मी गाथामां जैनधर्मनी श्रेष्ठता बतावीने आचार्यदेवे कह्युं छे के हे जीवो!
तमे जिनशासनमां कहेला वीतरागभावरूप धर्मने जाणीने, भवना अभाव माटे तेनी ज भावना करो. आवा
जिनधर्मने ज उत्तम अने हितकारी जाणीने तेनुं सेवन करो.....ने रागनी रुचि छोडो..... पुण्यनी रुचि छोडो.....जेथी
तमारा भवनो अंत आवे ने मोक्ष थाय.
जैनधर्मने ज श्रेष्ठ कह्यो, ते जैनधर्म केवो छे?
–के भावि–भवनो नाश करीने मुक्ति आपनार छे. आत्माना एवा परिणाम के जेनाथी संसारनो नाश
थाय, तेनुं नाम जैनधर्म छे, अने ते श्रेष्ठ–उत्तम छे. तेथी भावि–भवने मथी नांखवा माटे हे जीव! तुं आवा
जैनधर्मनी रुचि कर.....आत्मस्वभावना आश्रये शुद्ध भाव प्रगट कर.
जिनशासनमां धर्मनुं स्वरूप
हवे जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो! आपे जैनधर्मने उत्तम कह्यो अने तेनी भावना करवानुं कह्युं, तो ते
धर्मनुं स्वरूप शुं छे? जैनधर्मनी श्रेष्ठता कही तो तेनुं स्वरूप शुं छे? जेना अंतरमां धर्मनुं स्वरूप जाणवानी जिज्ञासा
जागी छे, जेने धर्मनी धगश छे–अभिलाषा छे, एवो जीव विनयथी पूछे छे के हे नाथ! जैनधर्मनुं खरुं स्वरूप शुं छे–
ते कृपा करीने समजावो.
एवा जिज्ञासु जीवने समजाववा आचार्यदेव ८३ मी गाथामां जैनधर्मनुं स्वरूप कहे छे–
पूयादिसु वयसहियं पुप्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो
।। ८३।।
पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् ।
मोह–क्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः ।। ८३।।
जिनशासनमां जिनेन्द्रदेवे एम कह्युं छे के पूजादिकमां अने व्रतसहित होय ते तो पुण्य छे, अने आत्माना
मोह–क्षोभ रहित परिणाम ते धर्म छे.
जुओ, आ गाथा घणी महत्वनी छे. पुण्य अने धर्म बंनेनुं जुदुं जुदुं स्वरूप बतावीने आचार्यदेवे स्पष्ट कर्युं
छे के शुभराग ते जैनधर्म नथी, शुभरागवडे जैनधर्मनो महिमा नथी, जिनशासनमां व्रत–पूजा वगेरेना शुभरागने
भगवाने धर्म नथी कह्यो, पण तेने पुण्य कह्युं छे; अने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध परिणामने ज
जिनशासनमां भगवाने धर्म कह्यो छे, तेनाथी ज जिनशासनो महिमा छे.
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आत्मधर्मः १प३