Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २२७ :
“सम्यग्दर्शनुं अफर आंगणुं”

सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे आंगणे आवेलो जीव पहेलांं पोताना
आत्मस्वभावनो निर्णय करे छे. त्यां जो के मननुं अवलंबन छे पण निर्णयमां तो
‘अरिहंत जेवो मारो आत्मा छे’ एम नक्की कर्युं छे, एटले ते निर्णयमां मनना
अवलंबननी मुख्यता नथी पण स्वभाव तरफना झूकावनी मुख्यता छे, तेथी तेने
“सम्यग्दर्शननुं अफर आंगणुं” कह्युं छे.
वीर सं. २४७५ना कारतक सुद तेरस ने रविवारना रोज छ बेनोए ब्रह्मचर्य
प्रतिज्ञा लीधी ते प्रसंगे श्री प्रवचनसार गाथा ८० उपरना पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.
[१]
आजे मांगळिक प्रसंग छे ने गाथा बराबर अलौकिक आवी छे. प्रवचनसारनी ‘८०’ मी गाथा छे;
८० एटले आठ अने शून्य, आठ कर्मनो नाश करीने सिद्धदशा केम थाय तेनी आ वात छे.
अरिहंत भगवाननो आत्मा पण पूर्वे अज्ञान दशामां हतो ने संसारमां रखडतो हतो; पछी
आत्मानुं भान करीने तेणे पोताना दर्शनमोहनो क्षय कर्यो, अने शुद्धोपयोग वडे चारित्रमोहनो पण क्षय
करीने सर्वज्ञ अरिहंतदशा प्रगट करी. –आवा अरिहंत भगवानना आत्माने द्रव्य–गुण–पर्यायपणे जे जीव
बराबर जाणे छे ते पोताना आत्माने जाणे छे ने तेने दर्शनमोहनो नाश थईने शुद्ध सम्यक्त्व प्रगटे छे.
[२]
अहीं तो, जे जीव आत्मस्वभावना आंगणे आव्यो ते जीव स्वभावमां जरूर प्रवेश करे छे–
एवी ज शैलि छे. आत्माना स्वभावनी निर्विकल्प प्रतीति ने अनुभव ते सम्यकत्व छे, ते अपूर्व