Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २३३ :
कोई रीते विषयोमां सुख छे ज नहि. आम समजीने अरे जीव! विषयोथी विमुख था ने चैतन्यस्वभावनी
सन्मुख था. विषयो भोगववाथी अनंतकाळे य तृप्ति थती नथी, पण विषयोनुं लक्ष छोडीने चैतन्यना
अनुभवमां क्षणमात्रमां तृप्ति थाय छे, धर्मात्मा अंतर्मुख थईने अतीन्द्रियआनंदना वेदनथी तृप्त–तृप्त थई
जाय छे. अज्ञानी चैतन्यना आनंदने चूकीने, बाह्यविषयोमां सुखबुद्धिथी झांवा नांखतो, अतृप्तपणे ज मरे छे.
अहीं शिष्य पूछे छे के हे नाथ! आप कहो छो के ज्ञानी महापुरुषो चैतन्यना आनंदना भोगवटा सिवाय
बहारना कोई विषयोमां स्वप्ने य सुख नथी मानता; परंतु ज्ञानी महापुरुषो–चक्रवर्ती वगेरे–पण विषयोनो
उपभोग करता तो देखाय छे! वळी पुराणशास्त्रोमां पण चक्रवर्ती–ईन्द्र वगेरे धर्मात्माओना भोगवैभवनी घणी
कथा सांभळी छे! अने आप कहो छो के “क्यो ज्ञानी विद्वान भोगोने भोगवशे?”–तो ए वातनो कई रीते मेळ
छे. आप तो कहो छो के ज्ञानी भोग भोगवे नहि, ने पुराणोमां तो ज्ञानीना पुण्यनुं वर्णन करतां तेना वैभवना
भोगनुं घणुं वर्णन आवे छे! तो एनी संधि कई रीते छे?
तेना समाधानमां आचार्यदेव कहे छे के हे वत्स, सांभळ! अमे एम कह्युं हतुं के “अहितकर विषयभोगोने क्यो
बुद्धिमान सुखबुद्धिथी सेवन करशे?” “सुखबुद्धिथी” एवुं खास विशेषण वापर्युं छे. ‘आनंदनुं पूर मारा
आत्मामां छे, ते आनंदना पूरमां मारे डुबकी मारवी छे, तेमां ज मारुं सुख छे. आ विषयो तरफनी वृत्ति तो
विष जेवी छे, तेमां मारुं सुख के हित नथी”–एवुं धर्मीने भान वर्ते छे, विषयोमांथी सुख लउं–एवी बुद्धिथी
विषयोनो उपभोग तेने कदी होतो नथी. अज्ञानी मूढ जीव स्वभावने जाणतो नथी, ने राग वडे मने लाभ
थशे–एम ते मूढ माने छे, एटले विषयो तरफनी सुखबुद्धि तेने ऊभी ज छे.
पुण्य शुं, तेनुं फळ शुं आवशे? पाप शुं, तेनुं फळ शुं आवशे? ज्ञान शुं, तेनुं फळ शुं आवशे–ए बधानो
विवेक धर्मीने वर्ते छे. मारा ज्ञानना फळमां शांतिनो क्रम छे, विषयो तरफनी वृत्ति तो आकुळता उपजावनारी छे.
विषयभोगना फळमां कदी शांतिनो क्रम आवे–एम बनतुं नथी. धर्मात्मानुं ध्येय तो आत्मानी शांतिने ज
साधवानुं छे, पण शांतिने साधतां साधतां तेनी साथेना रागना फळमां राज्यादि वैभवनो संयोग पण आवी
जाय छे–एवो ज क्रम छे. पछी वीतरागी साधन वधारीने, राग तोडीने, भोगवैभवने पण छोडीने, चैतन्यना
आनंदमां लीन थाय छे–मुनि थईने मुक्तिने साधे छे.–आवो साधकनो क्रम छे. वच्चे साधकदशामां राग आवे ज
नहि के तेना फळरूप भोगोपभोगनो संयोग ज्ञानीने होय ज नहि–एवो क्रम नथी. ज्ञान थतां वेंत ज सर्व
विषयभोगोथी छूटीने वनमां चाल्यो जाय–एवो कांई नियम नथी. हा, एटलो नियम छे के ज्ञान थतां वेंत
पोताना आत्मा सिवाय जगतना बीजा कोई विषयोमां तेने सुखबुद्धि रहेती नथी. अने पछी चैतन्यना
अनुभवथी जेम जेम वीतरागता वधती जाय छे तेम तेम रागना निमित्तभूत विषयो सहेजे छूटता जाय छे.
पण ज्ञानीने बहारमां भोगोपभोग देखाय तेथी करीने तेने ते विषयोमां सुखबुद्धि छे–एम नथी. माटे एम
अमे कह्युं छे के ज्ञानीने हितबुद्धिथी कदी पण विषयोनो भोगवटो होतो नथी. अस्थिरताना रागने लीधे जराक
भोगोपभोगनी वृत्ति थाय छे पण तेने ते अहितरूप जाणे छे, तेमां कदी सुखबुद्धि तेने होती नथी. माटे हे जीव!
तुं पहेलांं आ वातनो निर्णय कर के आत्माना स्वभाव सिवाय बहारना कोई विषयोमां सुख नथी,
आत्मस्वरूपमां अंतर्मुख थये ज सुख छे. –आम नक्की करीने बाह्यविषयोमांथी सुखबुद्धि छोड ने अंतर्मुख
चैतन्यना आनंदने अनुभववानो उद्यम कर.
[ईष्टोपदेश गा. १७ उपरना प्रवचनमांथी.]