Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २३२ : आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) २४८२ : आसो :
हे जीव! अतृप्तकारी विषयोमांथी सुखबुद्धि छोड.
आनंदनुं पूर तारा आत्मामां वहे छे
अज्ञानी जीव लक्ष्मी वगेरेथी सुख थवानुं माने छे ने तेमां ज उद्यम करे छे पण आत्माना हितनो उद्यम
करतो नथी तेने अहीं हितनो उपदेश आपीने समजावे छे :
अरे भाई, तुं लक्ष्मीमां सुख मानी रह्यो छे पण सांभळ! प्रथम तो ते धन मेळववामां अनेक प्रकारनी
आकुळता ने आताप छे, कदाचित् ते मळी जाय तो पण तेने फरीफरीने भोगववानी आकुळता थया करे छे ने
चित्तमां तेने साचववानो गभराट रह्या ज करे छे; अने अंतमां तेनो त्याग थतां पण महा दुःख थाय छे. आ
रीते जेनी आदिमां मध्यमां ने अंतमां दुःख ज छे–एवा अहितकर विषयभोगोने क्यो बुद्धिमान ‘सुखबुद्धिथी’
सेवन करशे? ज्ञानीने भोग तरफ जराक वृत्ति होय तोपण तेने तेमां सुखबुद्धि नथी, एटले सुखबुद्धिथी तेने
विषयोनुं सेवन नथी. अज्ञानीने तो विषयोमां सुखबुद्धि छे. भले कदाचित् बहारथी तेणे विषयोनो त्याग होय,
पण अभिप्रायमां रागनी शुभवृत्तिना वेदनमां सुख माने छे तो तेना विषयोमां सुखबुद्धि तो ऊभी ज छे; ने
ज्ञानीने विषयभोगना प्रसंग वखते य तेमां सुखबुद्धि जराय नथी, विषयो तरफनी वृत्तिने ते दुःखमय जाणे छे.
मारुं सुख तो मारा चैतन्यना वेदनमां छे.
अहीं आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! विषयोनो उपभोग तने कदी तृप्ति आपवा समर्थ नथी. अनंत
काळना विषयोना उपभोग छतां तुं तृप्ति न पाम्यो, तने अतृप्ति ज रही. माटे एटलो तो विचार कर के आ
विषयोमां मारुं सुख नथी; चैतन्यस्वरूपमां ज मारी शांति छे, चैतन्य सन्मुख थतां परम तृप्ति वेदाय छे, त्यां
बहारना विषयोनी जरूर पडती नथी. हजी भोगनो भाव सर्वथा छूटी गया पहेलांं तारो अभिप्राय तो
बदलावी नांख.–अरे, मारुं सुख बहारमां नहि, मारुं सुख तो मारामां ज छे.–आवो अभिप्राय थतां आखा
जगतमां विषयोमांथी सुखबुद्धि छूटी जशे, एटले अभिप्रायमां आखा जगतना विषयोनो त्याग थई जशे.
जुओ, आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे, सर्वने जाणवानो तेनो स्वभाव छे, ने ते जाणवाना स्वभावमां जे
आनंद छे ते अतीन्द्रिय छे. आवा ज्ञान–आनंद स्वभावने चूकीने जेणे एक पण परविषयमां सुख मान्युं तेने
आखा जगतना विषयो भोगववानी बुद्धि ऊंडेऊंडे पडी ज छे. आम ज्ञानस्वभावना वेदननो आनंद जेने नथी
भासतो तेने ईन्द्रियविषयोमां आनंद भासे छे. पण अरे भाई! तारी तृष्णानो दाह विषयो वडे कदी शांत नहि
थाय, विषयो तरफना वलणथी तो उलटो तारो तृष्णा–अग्नि वधारे फाटशे. विषयो तरफना वलणमां पहेलांं–पछी
के अंत क्यांय सुख नथी, क्यांय तृप्ति नथी. जेम जगतमां लाकडांथी अग्नि तृप्त थतो नथी छतां कदाच ते तो
लाकडाथी तृप्त थई जाय, दरियो नदीओनां पाणीथी तृप्त थतो नथी छतां कदाच ते तो तृप्त थई जाय, परंतु
जगतमां जीवोनी विषय–तृष्णा विषयोना उपभोग वडे कदी पण तृप्त थती नथी. असंख्य वर्ष सुधी स्वर्गना
भोगोपभोग वडे पण जीवने तृप्ति थती नथी. भोगनी जेने तृष्णा छे ते कदी तेने छोडतो नथी, एक
विषयमांथी बीजा विषयमां, ने बीजामांथी त्रीजा विषयमां अज्ञानीनी वृत्ति वळ्‌या ज करे छे, पण विषयोमांथी
तेनी वृत्ति विराम पामती नथी. विषयो तो कदाचित् तेने छोडीने चाल्या जाय छे छतां पण तेनी तृष्णा मूढने
छूटती नथी. विषयो मळे तोय दुःख, ने विषयो न मळे तोय महादुःख,