Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २३१ :
पात्र जीवोने सोंसरी ऊतरी जाय छे, तेओ यथाशक्ति शुद्धिनो मार्ग शोधवा लागी जाय छे अने ए शोधन
करवा जतां–जो के शुभभावोने तेओ बंधरूप समजे छे तो पण–तेमने विधविध शुभभावो आवी जाय छे. ए
रीते चौद चौद कुमारिका बहेनोए (–पहेलांंनां छ बहेनो साथे गणतां वीश वीश कुमारिका बहेनोए) असिधारा
समान मनाती महान प्रतिज्ञा अंगीकार करी छे.
क्षणिक वैराग्यथी के स्वतंत्र रहेवानी धूनथी ब्रह्मचर्य लेवुं ए जुदी वात छे अने वर्षोना सत्संग तथा
अभ्यासना परिणामे आत्महितनी बुद्धिथी, पूज्य गुरुदेवनी आत्मानुभवझरती वाणीनुं सदा सुधापान
करवाना भावथी तथा पूज्य बेनश्री–बेननी कल्याणकारिणी छायामां निरंतर रहेवानी भावनाथी लेवामां
आवतुं आ ब्रह्मचर्य ए जुदी वात छे.
अहो! धन्य छे ते काळ के ज्यारे सर्वज्ञवीतराग तीर्थंकरभगवंतो आ भूमिमां विचरता हता अने
ज्यारे–“त्यजाभ्येतत्सवं ननु नवकषायात्मकमहं मुदा संसार–स्त्रीजनितसुखदुःखावलि करम्। महामोहान्धानां
सततसुलभं दुर्लभतरं समाधौ निष्ठानामनवरतमानंदमनसाम्।।”–एम कहीने जीवो ब्रह्मानंदमां लीनतापूर्वक
राजपाट तजी, संसार छोडी, भावमुनि थई चाली नीकळता हता. अहो! धन्य छे ते दशा के जे दशामां ब्रह्मचर्य
सतत सुलभ–सुखमय–साहजिक लागतुं अने अब्रह्मचर्य असिधारा समान दुर्लभतर–अति दुःखमय लागतुं!
नमस्कार छे ते सहजानंदमय मुनिदशाने!
आ हीन काळमां एवी सहज आनंदझरती ब्रह्मनिष्ठ मुनिदशानां तो दर्शन अत्यंत अत्यंत दुर्लभ थई
पड्यां छे परंतु ते सहज आनंदमय मुनिदशानुं निरूपण करनार आत्मानुभवी ज्ञानीपुरुषोनो योग पण अति
विरल थई गयो छे. भावप्रधानता विनानी थोथां जेवी क्रियाओ जैनशासनमां जड घालीने बेठी छे, जाणे के
शुष्क क्रियाकांड ते ज जैनधर्म होय! आवा आ काळमां परम पूज्य गुरुदेवे सहजानंदमय आत्मानो अनुभव करी
‘जैनधर्म दर्शनमूलक छे अने मोक्षमार्ग सहजानंदमय छे, कष्टमय नथी’ एवी जोरदार घोषणा करीने अनेक
जीवोने आत्मदर्शनना पुरुषार्थमां प्रेर्या अने तेना परिणामे जिनप्ररूपित यथार्थ सहज मुक्तिमार्ग प्रकाशित थयो
तथा शास्त्रस्वाध्याय–देव–भक्ति–वैराग्य–ब्रह्मचर्यादि शुभ भावोमां पण नूतन तेज प्रगट्युं. जिनोपदिष्ट शीतळ
अध्यात्मज्ञानथी शून्य जेवा आ बळबळता काळने विषे तीर्थधाम सोनगढमां अध्यात्मजळनो जोरदार शीतळ
फुवारो ऊडी रह्यो छे, जेनी शीतळ फरफर–शीकर–छांट सारा भारतवर्षमां दूरदूरनां अनेक नानां मोटां गामोमां
फेलाईने अनेक सुपात्र जीवोने शीतळता अर्पे छे, ए अध्यात्मफुवाराना शीतळ छांटणांना प्रतापे ज ए विशाळ
अध्यात्म–वडलानी शीतळ छायाना प्रभावे ज आ बहेनोने आजीवन ब्रह्मचर्यनो शुभभाव प्रगट्यो छे.
श्रीमद् राजचंदजीए कह्युं छे के–अवश्य आ जीवे प्रथम सर्व साधनने गौण जाणी, निर्वाणनो मुख्य हेतु
एवो सत्संग ज सर्वार्पणपणे उपासवो योग्य छे के जेथी सर्व साधन सुलभ थाय छे, एवो अमारो
आत्मसाक्षात्कार छे....निश्चय करी आ ज सत्संग–सत्पुरुष छे एवो साक्षीभाव उत्पन्न थयो होय ते जीवे तो
अवश्ये करी प्रवृत्तिने संकोचवी, पोताना क्षणे क्षणे, कार्ये कार्ये अने प्रसंगे प्रसंगे तीक्ष्ण उपयोगे करी जोवा,
जोईने ते परिक्षीण करवा; अने ते सत्संगने अर्थे देह त्याग करवानो योग थतो होय तो ते स्वीकारवो.
निरंतर सत्संग अने निवृत्तिना निमित्तभूत ब्रह्मचर्यने अंगीकार करी आ बहेनोए जे विराट हिंमत
बतावी छे ते माटे तेमने आपणां सौना तरफथी भावभीनां अभिनंदन छे, तेमणे तेमना कुळने उज्ज्वळ कर्युं
छे अने मुमुक्षुमंडळनुं गौरव वधार्युं छे. तेओ आत्महितमां आगळ आगळ वधो!
आ दुर्लभयोगमां आपणे सौए ते ज एक ज्ञानानंदमय पद आस्वादवायोग्य छे के ज्यां विपदाओनो
प्रवेश नथी अने जेनी पासे अन्य सर्व सुरेंद्र–नरेंद्रादि पदो अपद भासे छे. ज्यां सुधी ए पदनो आस्वाद न
आवे त्यां सुधी ते पदना आस्वादमांथी झरती परमोपकारी गुरुदेवनी कल्याणकारिणी शीतळ वाणीनुं श्रवण–
मनन हो, तेमां रहेला गहन भावोने समजवानो उद्यम हो के जेथी निज पद पामी अनंत दुःखमय भवसागरने
तरी जईए.