Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २३९ :
ब्रह्मचर्य
त्त्ज्ञ
[ब्रह्मजीवनो अद्भुत आह्लाद क्यारे आवे?]
(१) ब्रह्मचर्य एटले आत्मस्वरूपमां रमणता.
ब्रहचारी एटले आत्मानो रंगी ने विषयोनो त्यागी.
विषयोनो त्यागी ते ज थई शके के जे तेमां सुख न मानतो होय.
विषयोमां सुख ते ज न माने के जेने विषयोथी निरपेक्ष एवा आत्मसुखनुं लक्ष थयुं होय.
(२) जेम एक स्पर्शेन्द्रियना विषयमां सुख नथी तेम पांच ईन्द्रियो संबंधी कोईपण विषयोमां
आत्मानुं सुख नथी; सुख तो आत्मामां ज छे.–आम जाणीने सर्व विषयोमांथी सुखबुद्धि टळे ने असंगी
आत्मस्वभावनी रुचि थाय–त्यारे ज वास्तविक ब्रह्मचर्यजीवन होय. जेटलो आत्मिकसुखनो अनुभव छे तेटले
अंशे ब्रह्मचर्यजीवन छे. ब्रह्मस्वरूप आत्मामां जेटले अंशे चर्या (परिणमन) होय तेटले अंशे ब्रह्मचर्यजीवन छे.
जेटली ब्रह्ममां चर्या होय तेटलो पर विषयोनो त्याग होय छे.
जे जीव परभावोथी के परविषयोथी सुख मानतो होय ते जीवने ब्रह्मचर्यजीवन होय नहि, केमके तेने
विषयोना संगनी भावना पडी छे.
(३)–आथी ब्रह्मचर्यने अने तत्त्वज्ञानने मेळ सिद्ध थयो. जे जीवने तत्त्वज्ञान होय, आत्मानी रुचि
होय ते जीव कदी कोईपण परविषयमां सुख माने नहि, रुचिमां–श्रद्धामां–भावनामां तो तेणे पोताना
आत्मस्वभावनो संग करीने सर्व परविषयोनो संग छोडी दीधो छे. ने पछी स्वभावनी रुचिना जोरे आगळ
वधतां जेम जेम रागादि परपरिणति टळती जाय छे तेम तेम तेना निमित्तभूत बाह्यविषयो पण सहेजे छूटता
जाय छे. आ क्रमथी आत्मिक–ब्रह्मचर्यजीवनमां आगळ वधतां वधतां परिपूर्ण अतीन्द्रियसुखने पामीने ते जीव
पोते ब्रह्मस्वरूप परमात्मा थई जाय छे.
(४) शरीरना स्पर्शमां जेने सुखनी मान्यता टळी गई होय ते ज तेनाथी विरकत थईने
ब्रह्मचर्यजीवन जीवी शके. हवे जेने शरीरना स्पर्शविषयमांथी सुखबुद्धि टळी गई होय ते जीवने शब्द–रूप–रस–
गंध–वर्ण वगेरे विषयोमांथी पण सुखबुद्धि अवश्य टळी गई होय. जेने एकपण ईन्द्रियमांथी सुखबुद्धि
खरेखर टळे तेने पांचे ईन्द्रियोमांथी सुखबुद्धि जरूर टळी जाय. हवे पांचे ईन्द्रियना विषयोमांथी सुखबुद्धि तेने
ज टळे के जेणे सत्पुरुषोना समागमे पांचे ईन्द्रियना विषयोथी पार अतींद्रिय आत्मसुख लक्षगत कर्युं होय. आ
रीते जेणे आत्माना अतीन्द्रियसुखनो स्वाद लक्षगत कर्यो होय ते ज ईन्द्रियविषयोथी विरकत थईने ब्रह्म–
जीवननो खरो आह्लाद लई शके.
(५) बीजी रीते कहीए तो सम्यग्द्रष्टिसंतो ज ब्रह्मजीवननी खरी मोज माणे छे; केमके सम्यग्दर्शन
स्वद्रव्यने विषय करनार छे; स्वद्रव्यने जे विषय न करे ने परद्रव्य साथे ज विषय करे तेने कदी विषयोनी
आकुळता मटे नहि ने ब्रह्मजीवननो आनंद आवे नहि.
मारा असंग चैतन्यतत्त्वने कोई परद्रव्यनो संग जरापण नथी, परद्रव्यना संगथी मारामां सुख नथी
पण परद्रव्यना संग वगर ज मारा स्वभावथी मारुं सुख छे–एम जे जीवे पोताना अतीन्द्रिय आत्मस्वभावनी
रुचि अने लक्ष कर्युं छे ने सर्वे ईन्द्रियविषयोनी रुचि छोडी दीधी छे ते भव्य जीव आत्मिकआह्लादथी भरपूर
एवुं ब्रह्मजीवन जीवे छे, ने एवा समकिती धर्मात्मा भगवान–समान छे एम ज्ञानीओ कहे छे.
–आ रीते, खरेखर आत्मस्वभावनी रुचिनी साथे ज ब्रह्मचर्य वगेरे सर्वे गुणोनां बीजडां पडेला छे.
माटे साचुं ब्रह्मजीवन जीववाना अभिलाषी जीवोनुं पहेलुं कर्तव्य ए छे के, अतीन्द्रियआनंदथी भरपूर अने सर्वे
परविषयोथी खाली एवा पोताना आत्मस्वभावनी रुचि करवी.....तेनुं लक्ष करवुं....तेनो अनुभव करीने तेमां
तन्मय थवानो प्रयत्न करवो.