Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २४० : आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) २४८२ : आसो :
‘आत्मधर्म’ ना ग्राहक बनो
पांच हजार ग्राहक पूरा करवानी झूंबेशमां सहकार आपो
आपना हाथमां रहेलुं आ ‘आत्मधर्म’–मासिक सोनगढथी प्रसिद्ध थाय छे. आ मासीकमां परमपूज्य
सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना आत्महितकारी अध्यात्म–उपदेशनो मुख्यसार प्रसिद्ध करवामां आवे छे, अने ते
उपरांत पू. गुरुदेवना प्रतापे थती जैनधर्मनी प्रभावनानी विगतो आपवामां आवे छे. सांसारिक झंझटोमां आ
मासीक कदी पडतुं नथी.
आ अंकनी साथे साथे आ मासीकना तेर वर्ष पूरा थाय छे ने आगामी अंके ते १४मा वर्षमां प्रवेश करशे.
हजारो जिज्ञासु जीवो होंसेहोंसे आ मासीकनुं वांचन करे छे; ने तेमां आवेला पू. गुरुदेवना उपदेशद्वारा
शांति अने धर्मनी प्रेरणा मेळवे छे.
आ १४मा वर्षमां परमपूज्य गुरुदेव शाश्वत तीर्थसम्मेदशिखरधाम तेमज पावापुरी–चंपापुरी–राजगृही
वगेरे अनेक तीर्थधामनी यात्रा अर्थे भारतना अनेक शहेरोमां विचरवाना छे. तीर्थयात्राना अने प्रभावनाना
आ महान प्रसंगोना आह्लादकारी–रोमांचक समाचारो “आत्मधर्म”मां प्रसिद्ध थशे. आ समाचारो जाणवा,
तेमज ते ते प्रसंगोना पू. गुरुदेवना आध्यात्मिकभावना भक्ति–वैराग्य संबंधी उद्गारो जाणवा आप
जरूर ‘आत्मधर्म’ना ग्राहक बनो. आप पोते ग्राहक हो तो आपना संबंधीजनोने ग्राहक बनावो. आवता वर्ष
दरमियान आत्मधर्मना ग्राहको वधारीने पांच हजार पूरा करी देवानी उमेद छे. आशा छे के आत्मधर्मना हजारो
ग्राहकबंधुओ आत्मधर्मना ग्राहकोनी संख्या वधारवानी आ झूंबेश तात्कालिक उपाडी लेशे ने ए रीते
धर्मप्रचारना आ कार्यमां पोतानो सहकार आपशे.
आत्मधर्म मासीकनुं एक वर्षनुं लवाजम रूा. ३–०–० त्रण रूपिया छे. नवुं वर्ष कारतक मासथी शरू थाय
छे. गमे त्यारे ग्राहक थनारने वर्षना बधा अंको मळे छे. आपना गाममां मुमुक्षुमंडळमां पण लवाजम भरी
शकाय छे.
लवाजम मोकलवानुं सरनामुं :
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर सोनगढ [सौराष्ट्र]
(दीवाळी पहेलां लवाजमो मोकली आपो.)

“ब्रह्मचर्य अंक” संबंधमां : प्रथम तो, जिज्ञासु ग्राहकोना हाथमां आ अंक अमे
मोडो मुकी शकीए छीए ते बदल दुःखपूर्वक क्षमा मांगीए छीए : आ अंकमां पू. गुरुदेव
वगेरेना त्रिरंगी चित्रो छापवानी घणी भावना होवा छतां, प्रेसोमां दिवाळीना कामना
भरावाने लीधे ते चित्रो आपवानुं पण बनी शक्युं नथी–ए माटे दिलगीर छीए. आटलुं छतां,
आ ब्रह्मचर्य–अंकने लखाण अने देखाव बंने द्रष्टिए शोभाववा अमे बनतो प्रयत्न कर्यो छे;
आशा राखीए छीए के आ अंक हाथमां आव्या बाद जिज्ञासु वांचकबंधुओ अमने विलंबने
माटे क्षमा करशे.