Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
ज्ञान – वैराग्यनां सींचन
“हे जीव! तने क्यांय न गमतुं होय तो तारो उपयोग पलटावी
नांख....ने आत्मामां गमाड! आत्मामां गमे तेवुं छे.....आत्मामां
आनंद भर्यो छे एटले त्यां जरूर गमशे.....माटे आत्मामां गमाड.
जगतमां क्यांय गमे तेवुं नथी पण एक आत्मामां जरूर गमे तेवुं छे.
माटे तुं आत्मामां गमाड.”
अहो, आ अशरण संसारमां जन्मनी साथे मरण जोडायेलुं ज
छे....आत्मानी सिद्धि न सधाय त्यां सुधी जन्म–मरणनुं चक्र चाल्या ज
करवानुं. आवा अशरण संसारमां देव–गुरु–धर्मनुं ज शरण छे. पू.
गुरुदेवे बतावेला चैतन्यशरणने लक्षगत करीने तेना द्रढ संस्कार
आत्ममां पडी जायए ज जीवनमां करवा जेवुं छे.”
“अंतरना ऊंडाणथी पोतानुं हित साधवा जे आत्मा जाग्यो.....अने जेने
आत्मानी खरेखरी लगनी लागी,–तेनी आत्मलगनी ज तेनो मार्ग करी
देशे. आत्मानी खरेखरी लगनी लागे ने अंदरमां मारग न थाय–एम
बने ज नहि.......आत्मानी लगनी लागवी जोईए....... तेनी पाछळ
लागवुं जोईए...आत्माने ध्येयरूप राखीने दिनरात सतत प्रयत्न करवो
जोईए.... ‘केम मारुं हित थाय’.....‘केम हुं आत्माने जाणुं!’..... एम
लगनी वधारीने प्रयत्न करे तो जरूर मार्ग हाथ आवे.”
“जेओ आत्मानुं सुख पाम्या एवा ज्ञानीओने पछी एम थाय के
अहो! जगतमां बधाय जीवो आवुं सुख पामे...आत्मानुं आवुं सुख
बधाय पामे.....अमारा जेवुं सुख बधा जीवो पामे....”
ज्ञानीनी परिणति सहज होय छे.....प्रसंगे–प्रसंगे एने भेदज्ञानने याद
करीने गोखवुं नथी पडतुं....पण एने तो एवुं परिणमन ज सहज
थई गयुं छे.....आत्मामां एकधारुं परिणमन वर्त्या ज करे छे”
[–भिन्न–भिन्न प्रसंगे पू. बेनश्रीबेनना उद्गारो]
मुद्रक:–जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय : वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
प्रकाशक:–श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)