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आत्मार्थीनो झणझणाट
अहो! भवरहित वीतरागी पुरुषोनी वाणीना रणकार काने
पडतां ज आत्मार्थी जीवनो आत्मा झणझणी ऊठे छे...पुरुषार्थहीन
नामर्द जीवो ए वाणीनो निर्णय करी शकता नथी...
(समाधिशतकना प्रवचनमांथी) –पू. गुरुदेव.
सर्वज्ञ भगवाननो उपदेश जीवने बाह्य विषयोथी छोडावीने
अंतरमां चैतन्यनुं शरण करावे छे, ने तेमां ज जीवनुं हित छे, केमके
चैतन्यना अनुभवथी ज भवनो नाश थईने मोक्षसुख प्रगटे छे.
देहने ज जेणे आत्मा मान्यो छे, विषयोमां ज जेणे सुख
मान्युं छे एवा मूढ जीवोने वीतरागनी वाणी तो प्रतिकूळ पडे छे.
केमके वीतरागनी वाणी तो विषयोनुं विरेचन करावनारी छे. मूढ
कायर जीवो विषयोनी लीनता छोडीने चैतन्यने देखी शकता नथी,
तेओ तो चैतन्यना पुरुषार्थरहित नपुंसक छे, तेमनामां भवरहित
एवा वीतरागनी वाणीनो निर्णय करवानी ताकात नथी.
“अहो जीवो! तमारुं सुख तमारामां छे, बाह्य–विषयोमां
कयांय सुख नथी; आत्मा ज सुखस्वभावी छे माटे आत्मामां
अंतर्मुख थये सुख छे–” आवी वाणीना रणकार ज्यां काने पडे त्यां
तो आत्मार्थी जीवनो आत्मा झणझणी ऊठे के वाह! आ भवरहित
वीतरागी पुरुषनी वाणी!! आत्माना शांत–रसने बतावनारी आ
वाणी अपूर्व छे! अहो! वीतरागी संतोनी वाणी परम अमृत छे, ने
ए भवरोगनो नाश करनार अमोघ औषध छे.–आम तो
आत्मार्थीनो आत्मा उल्लसी जाय छे...ने तेनी पुरुषार्थनी दिशा स्व
तरफ वळी जाय छे, विषयोमांथी सुखबुद्धि ऊडी जाय छे.–एणे ज
खरेखर वीतरागनी वाणीनो निर्णय कर्यो छे. बाह्य विषयोनी के
रागनी प्रीतिवाळो नामर्द जीव वीतरागी भवरहित पुरुषोनी
वाणीनो निर्णय करी शकतो नथी.
‘वचनामृत वीतरागनां परम शांतरसमूळ
औषध जे भवरोगना कायरने प्रतिकूळ.’
मुद्रक:–जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय : वल्लभविद्यानगर, (गुजरात)
प्रकाशक:–श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर, (गुजरात)