Atmadharma magazine - Ank 159
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष चौदमुं : सम्पादक: पोष
अंक त्रीजो रामजी माणेकचंद दोशी २४८३
आराधना
कोनी आराधना करवी?
आ चैतन्यस्वरूपी आत्मा पोते अनंतशक्तिवाळो देव छे, पोते ज
पोतानो परमेश्वर छे, पोते दर्शन–ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण छे, ते ज
आराध्य छे, माटे तेनी सन्मुख थईने तेनी ज आराधना करवी. तेनी
आराधनानुं फळ मोक्ष छे.
आ आत्माथी भिन्न परवस्तुओनो (–पंचपरमेष्ठी भगवंतो
वगेरेनो पण) आत्मामां अभाव छे, तेओ आ आत्मानुं खरुं आराध्य केम
होई शके? जेनी साथे पोतानी एकता न थई शके ते पोतानुं खरुं आराध्य
होय नहि; तेमज पोतानी पर्यायमां जे शुभ–अशुभ रागादि भावो थाय छे
ते तो स्वयं अपराधरूप छे–विराधकभाव छे, तो तेनी आराधना करवानुं
केम होय? माटे परचीज के विकार ते आत्मानुं आराध्य नथी, पण परथी
भिन्न तेमज विकारथी रहित एवो जे पोतानो अचिंत्य चैतन्य शक्तिसंपन्न
स्वभाव छे ते ज आराध्य छे, तेनी आराधनाथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र–तप अने: मोक्ष पमाय छे. जेओ आवा आत्मस्वभावनी आराधना
करे छे तेओ ज आराधक छे; अने जेओ आवा आत्मस्वभावनी आराधना
नथी करता तेओ विराधक छे.
(–प्रवचनमांथी)