रुचिथी स्वीकार करीने शिष्यने पोतानो शुद्धात्मा समजवानी झंखना थई. तेथी ते शुद्धात्मानुं स्वरूप जाणवानी
जिज्ञासाथी तेणे प्रश्न पूछयो के–हे नाथ! एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए हे? प्रभो! जे
शुद्ध आत्माने जाण्या विना हुं अत्यार सुधी रखडयो, ते शुद्धात्मानुं स्वरूप शुं छे? ते कृपा करीने मने बतावो.
त्यां आवी न हती, तेथी सातमी गाथानी शरूआतमां श्री आचार्यदेवे शिष्यना मुखमां प्रश्न मुकाव्यो छे के–
प्रभो! दर्शन–ज्ञान–चारित्रना भेदथी पण आ आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे, अर्थात् ‘आत्मा ज्ञान छे–दर्शन छे–
चारित्र छे’ एम लक्षमां लेवा जतां पण भगवान शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी परंतु मात्र विकल्पनी
आगळ वधीने शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करवा माटे तेने आ प्रश्न ऊठ्यो छे. छठ्ठी गाथामां श्री गुरुजी
पासेथी महाविनय अने पात्रतापूर्वक ज्ञायकस्वरूपनुं श्रवण करीने तेवो अनुभव करवा माटे अंर्त–मंथन करतां
करतां ‘हुं ज्ञायक छुं’ एम लक्षमां लेवा मांड्युं; परंतु तेमां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठ्यो. त्यां पोतानी
शुद्धात्मरुचिना जोरे शिष्ये एटलुं तो नक्कथ्ी करी लीधुं के हजी आ गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ते पण
शुद्धात्माना अनुभवने रोकनार छे, आ विकल्प छे ते अशुद्धता छे तेथी ते पण निषेध करवा जेवो छे. शिष्यने
रुचि अने ज्ञानमां एटली तो सूक्ष्मता थई गई छे के गुण–गुणी भेदना विकल्पथी पण शुद्ध आत्मानो अनुभव
आगळ कांईक अभेद वस्तु छे तेने लक्षमां लईने तेनो अनुभव करवा माटे अंतरमां ऊंडो ऊंडो ऊतरतो जाय
छे, अने ते वात श्रीगुरुना मुखथी सांभळवा माटे विनयथी पूछे छे के प्रभो! ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदथी
आत्माने लक्षमां लेवा जतां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ने अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो शुं करवुं?
चारित्र एवा गुणभेद व्यवहारथी ज कहेवामां आव्या छे, परमार्थथी तो भगवान आत्मा एक अभेद छे. माटे
‘एक अभेद ज्ञायक आत्मा’ने लक्षमां लईने अनुभव करतां, हुं ज्ञान छुं’ ईत्यादि गुणगुणीभेदना विकल्पोनो
पण निषेध थई जाय छे ने शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
बाबतनो पत्र–व्यवहार हवेथी नीचेना सरनामे करवो :–