Atmadharma magazine - Ank 159
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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शुद्धात्माना निर्विकल्प अनुभव माटे झंखतो शिष्य
श्री समयसारनी पहेली ज गाथामां आचार्यदेवे आत्मामां सिद्धपणानी स्थापना करी के हुं सिद्ध अने तुं
पण सिद्ध. सिद्ध–भगवानना आत्मामां अने आ आत्मामां स्वभावथी कांई फेर नथी. आ वातनो घणी अपूर्व
रुचिथी स्वीकार करीने शिष्यने पोतानो शुद्धात्मा समजवानी झंखना थई. तेथी ते शुद्धात्मानुं स्वरूप जाणवानी
जिज्ञासाथी तेणे प्रश्न पूछयो के–हे नाथ! एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए हे? प्रभो! जे
शुद्ध आत्माने जाण्या विना हुं अत्यार सुधी रखडयो, ते शुद्धात्मानुं स्वरूप शुं छे? ते कृपा करीने मने बतावो.
आवा शिष्यने शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजाववा श्री आचार्य प्रभुए छठ्ठी गाथामां “ज्ञायकभाव”नुं
वर्णन कर्युं; त्यां विकारनो अने पर्यायभेदनो तो निषेध कर्यो, पण हजी गुणभेदरूप व्यवहारना निषेधनी वात
त्यां आवी न हती, तेथी सातमी गाथानी शरूआतमां श्री आचार्यदेवे शिष्यना मुखमां प्रश्न मुकाव्यो छे के–
प्रभो! दर्शन–ज्ञान–चारित्रना भेदथी पण आ आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे, अर्थात् ‘आत्मा ज्ञान छे–दर्शन छे–
चारित्र छे’ एम लक्षमां लेवा जतां पण भगवान शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी परंतु मात्र विकल्पनी
उत्पत्ति थईने अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो तेनुं शुं करवुं?
जुओ! शिष्यना प्रश्नमां सूक्ष्मता! कोई बहारनी वातने तो याद नथी करतो, शरीरनी क्रिया के पुण्य–
पापनी वात पण नथी पूछतो; अंदरमां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ते पण तेने खटके छे एटले तेनाथी
आगळ वधीने शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करवा माटे तेने आ प्रश्न ऊठ्यो छे. छठ्ठी गाथामां श्री गुरुजी
पासेथी महाविनय अने पात्रतापूर्वक ज्ञायकस्वरूपनुं श्रवण करीने तेवो अनुभव करवा माटे अंर्त–मंथन करतां
करतां ‘हुं ज्ञायक छुं’ एम लक्षमां लेवा मांड्युं; परंतु तेमां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठ्यो. त्यां पोतानी
शुद्धात्मरुचिना जोरे शिष्ये एटलुं तो नक्कथ्ी करी लीधुं के हजी आ गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ते पण
शुद्धात्माना अनुभवने रोकनार छे, आ विकल्प छे ते अशुद्धता छे तेथी ते पण निषेध करवा जेवो छे. शिष्यने
रुचि अने ज्ञानमां एटली तो सूक्ष्मता थई गई छे के गुण–गुणी भेदना विकल्पथी पण शुद्ध आत्मानो अनुभव
पार छे–एम नक्की करीने ते गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण छूटो पडवा मागे छे; गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण
आगळ कांईक अभेद वस्तु छे तेने लक्षमां लईने तेनो अनुभव करवा माटे अंतरमां ऊंडो ऊंडो ऊतरतो जाय
छे, अने ते वात श्रीगुरुना मुखथी सांभळवा माटे विनयथी पूछे छे के प्रभो! ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदथी
आत्माने लक्षमां लेवा जतां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ने अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो शुं करवुं?
श्री आचार्यभगवान पण शिष्यनी अत्यंत निकट पात्रता देखीने तेने शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजावे छे;
शिष्यना प्रश्नना उत्तर आपतां सातमी गाथामां कहे छे के आ भगवान ज्ञायक एक आत्मामां ज्ञान–दर्शन–
चारित्र एवा गुणभेद व्यवहारथी ज कहेवामां आव्या छे, परमार्थथी तो भगवान आत्मा एक अभेद छे. माटे
‘एक अभेद ज्ञायक आत्मा’ने लक्षमां लईने अनुभव करतां, हुं ज्ञान छुं’ ईत्यादि गुणगुणीभेदना विकल्पोनो
पण निषेध थई जाय छे ने शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
श्री समयसार गा. ७ उपरना प्रवचनमांथी
वीर सं. २४७७, अषाड वद २
आत्मधर्मना ग्राहकोने
आ अंकथी “आत्मधर्म”नुं प्रकाशन आनंद प्रेस–भावनगरथी थाय छे. अत्यार सुधी तेनुं प्रकाशन
वल्लभविद्यानगरथी थतुं तेने बदले हवेथी भावनगरथी थशे. अने व्यवस्था पण त्यांथी ज थशे; माटे व्यवस्था
बाबतनो पत्र–व्यवहार हवेथी नीचेना सरनामे करवो :–
आनंद प्रेस–भावनगर
वार्षिक लवाजम रूपिया त्रण: छूटक नकल चार आना