Atmadharma magazine - Ank 160
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म २४८३ : माह :
देहना साधनथी जीवने धर्म थतो नथी. धर्मनुं साधन तो आत्मा पोते ज छे. पैसामां के मिष्टान्नमां क्यांय
आत्मानुं सुख नथी. मिष्टान्नना स्वादनो रस तेमां अज्ञानी मजा अने आनंद माने छे पण पोताना आत्माना
चैतन्यरसने ते जाणतो नथी. मिष्टान्न ते तो जड छे, ते छ कलाकमां रूपांतर थईने विष्टा थई जाय छे, तेमां
स्वप्नेय आत्मानुं सुख नथी, पण अज्ञानीए मात्र कल्पनाथी मान्युं छे. आत्माना स्वभावनुं अतीन्द्रिय सुख
अज्ञानीने लक्षमां आवतु नथी. आत्माना स्वभावनुं जे सुख छे ते सुख जगतना कोई विषयोमां नथी. अहो!
आत्माना आनंदना अतीन्द्रिय स्वादनुं वर्णन वाणीमां पूरुं आवे तेम नथी. तेथी श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के:–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक्या नहीं ते पण श्री भगवान जो.
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.
आत्माना स्वभावनो परम अनंत आनंद सिद्धपदमां सादि–अनंत प्रगटी गयो छे. सिद्ध भगवंतो
सादि–अनंत पोताना अनंत आनंदमां बिराजी रह्या छे. अहो! ए सिद्धपदनो महिमा वाणीथी शुं कहेवो? ए
सिद्ध भगवंतोना आनंदनी शी वात!! ए तो आत्माना स्वभावमां अंतर्मुख थईने जे अनुभव करे तेने ज
तेनी खबर पडे. समकितीने अंतरनी शांतिना स्वाद आगळ दुनियाना विषयोनी कांई किंमत रहेती नथी. मारा
आत्मानो आनंद जगतना विषयोथी पर छे. भाई! एक वार तारा आत्मामां सम्यग्ज्ञानना झणकार तो
जगाड के मारो आत्मा आ देहादिथी भिन्न, पोते ज आनंदस्वरूप छे. मारा आत्मानो आनंद बहारमां क्यांय
नथी; अंतर्मुख थईने स्वभावमां एकाग्र थये ज मारो आनंद छे. जेम घडो माटीमांथी ज थाय छे तेम मारी
शांति मारा आत्मामांथी ज आवे छे. आत्माना सम्यग्ज्ञान वगर आत्मानी शांति के मुक्ति थती नथी, माटे
सत्समागमे पोतानी पात्रतापूर्वक आत्मस्वरूपनो अभ्यास करवो जोईए. आ शरीर तो कांई जीवने आधीन
रहेतुं नथी, जीवनी ईच्छा न होय छतां ते तो क्षणमां छूटी जाय छे; माटे ते चीज आत्मानी नथी. लक्ष्मी वगेरेनो
संयोग पण जीवनी ईच्छा प्रमाणे आवतो के रहेतो नथी. आत्मानी वस्तु तो ज्ञान छे, हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं–
एवो निर्णय जीवे अनंतकाळमां कदी कर्यो नथी. ‘हुं कोण छुं ने मारुं स्वरूप शुं छे?’ ते कदी जाण्युं नथी. “हुं
मनुष्य, हुं वाणीयो, हुं फलाणानो पुत्र, फलाणो मारो पुत्र,” एम जीवे भ्रमणाथी देहने ज पोतानुं स्वरूप मान्युं
छे; पण हराम छे ए कोई जीवनां होय तो! जीवनां जे होय ते जीवथी कदी जुदा पडे नहि, अने जे जुदा पडी
जाय छे ते जीवथी जुदा ज छे. जीव तो ज्ञानस्वरूप छे, तेनुं ज्ञान तेनाथी कदी जुदुं पडतुं नथी.
एक सेकंड पण आवा ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणे तो अनंतकाळनुं परिभ्रमण टळीने अल्पकाळमां मुक्ति
थया विना रहे नहि. श्रीमद् राजचंद्रजी १६ वर्ष अने प महिनानी वयमां कहे छे के:–
हुं कोण छुं, क्यांथी थयो, शुं स्वरूप छे मारुं खरुं! कोनी संबंधे वळगणा छे राखुं के ए
परहरुं! एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या, तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांत तत्त्वो
अनुभव्यां.
अरे! आवो दुर्लभ मनुष्य अवतार पामीने पण “हुं कोण छुं? ’ एनो विचार पण जीव करतो नथी;
बहारना कार्यो आडे तेने चैतन्यनी वात सांभळवानी पण फूरसद मळती नथी. हे जीव! आवो अवतार अने
सत्समागम अनंतकाळे मळवो मुश्केल छे. तेमां जो आत्मानी दरकार करीने तेनी समजणनो अवकाश नहि ले
तो आ चोरासीना जन्ममरणमांथी तारो क्यांय आरो नहि आवे. अंतर्मुख थईने तुं अजमायस कर.
अनंतकाळमां नहि समजेल ते चीजनो भाव अपूर्व छे; ते समजवा माटे सत्समागमे वारंवार श्रवण अने
धारण करीने अंतरमां प्रयोग करवो जोईए. अंतरना प्रयोग वगर सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग
थतो नथी, तेना विना मुक्ति के शांति थती नथी, माटे हे जीवो! अंतरनुं सुख अंतरमां छे तेनो विश्वास करो.