Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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हैं। आप समान परमोपकारी आत्मार्थी सत्पुरुष का समागम पाकर आज हम अतिशय
गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
सन्तप्रवर!
यह धर्मप्रधान भारतभूमि सदा से साधु एवं सन्त जनों को जन्म देती रही है। विभिन्न
दर्शनों के सूत्रपात का स्थान भी यही है। किन्तु इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण के
हेतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों ही आवश्यक है। साधुत्व एवं
संतत्व की साधना में रत्नत्रय प्रमुख साधन है। आपने सांसारिक वैभव और इन्द्रिय–सुखों
को तिलांजलि देकर आजन्म ब्रह्मचारी रहते हुए श्रीमद् कुन्दकुन्दस्वामी प्रभृति आचार्यों
द्वारा प्रणीत विश्वभारती के अनुपम रत्न समयसार, प्रवचनसार आदि महान ग्रन्थों का
गम्भीर अध्ययन कर अन्तर्द्रष्टि प्राप्त की है। अनेक संकटों एवं बाधक परिस्थितियों को
आह्वान करते हुए शान्ति और सहिष्णुतापूर्वक अपने निश्चित ध्येय एवं लक्ष्य की ओर
अग्रसर बने हुए हैं। आपकी श्रद्धा, साहस और द्रढ़ता की जितनी सराहना की जाय,
थोडी है।
अध्यात्मयोगिन्!
मोह और ममता के पंक में निमग्न मानव समूह का हित बहिमुखी वृत्ति से हटकर
अन्तर्मुख बनने में ही है। आप अपने अतिशय प्रभावक आध्यात्मिक प्रवचन द्वारा आत्मतत्त्व
के निरूपाधिक शुद्ध स्वरूप का स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत कर श्रोताओं को आत्मदर्शन की
ओर प्रेरणा प्रदान करते हैं। अपनी उद्बोधक वाणी द्वारा आप भौतिक सुखों की लालसा
में निमग्न जनता को आत्मज्ञान की ओर झुकने के लिये सदैव उपदेश करते रहते हैं।
आपके द्वारा की गई भारतीय संस्कृति एवं आत्मधर्म की महान् सेवा भारत के धार्मिक
इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगी।
इस पावन प्रसंग पर उपस्थित हम मुमुक्षुजन परम पावन सिद्धक्षेत्र की पुण्यभूमि
पर, जहांसे अनेकों गणधर एवं केवली मोक्ष पधारे हैं, जहां से श्री १००८ महावीर प्रभु ने
विश्व को अहिंसा और सत्य का संदेश दिया और जहां की अतिशय युक्त पहाडियाँ एवं
गर्म पानी के झरने निरंतर प्राचीन गौरवगाथा का संदेश दे रहे हैं, आपका अन्तःकरण से
अभिनन्दन करते हुए अपनो भावों की कुसुमांजलि इस सम्मान पत्र के द्वारा समर्पित करते
है और शाश्वत विद्यमान श्री १००८ जिनेन्द्र भगवान श्री सीमंधरस्वामी से प्रार्थना करते हैं
कि आपका सदुद्रेश्य सफल हो और आप चिरायु रहकर विश्वहितकारी जिनशासन की
पताका फहराते रहें।
श्री दिगम्बर जैन कोठी विनयावनत,
राजगीर [पटना] जैन समाज, राजगृह
दिनांक २–३–१९५७
ઃ ૨૧ઃ આત્મધર્મઃ ૧૬૧