Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 25

background image
प्रवचनो द्वारा आत्मतत्त्व के शुद्ध रूप का स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत कर आत्मदर्शन की ओर
प्रेरणा प्रदान करते हैं। आप अपनी उद्बोधक वाणी द्वारा भौतिक सुखों में निरत जनता से
आत्मज्ञान की ओर झुकने के लिए उपदेश करते रहते हैं। आप के द्वारा की गई आत्मधर्म
की सेवा और भारतीय संस्कृति की रक्षा धार्मिक जगत् में सदैव स्मरणीय रहेगी।
हम आप का अन्तःकरण से अभिनन्दन करते हुए अपने भावों से गूथी हुयी
पुष्पमाला को अभिनन्दन पत्र के रूप में समर्पित करते है और श्री १००८ जिनेन्द्रदेव से
प्रार्थना करते हैं कि आप चिरायु रहकर जिनशासन की पताका फहराते रहें।
आरा ताः २६–२–५७ विनयावनत
दिवम्बर जैन समाज, आरा।
।। श्री वीतरागाय नमः ।।
आध्यात्मिक सन्त आत्मार्थी सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी
की सेवामें सादर समर्पित
सम्मान–पत्र
सम्मानीय!
हमारा सौभाग्य है कि हम जिस महान व्यक्तित्व के पुण्य सम्पर्क की वर्षों से प्रतीक्षा
कर रहे थे हमारी वह मनोकामना आज सफल हो गई। वर्तमान बीस तीर्थंकरों की
निर्वाण–भूमि तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर की वन्दना करने के पवित्र संकल्प को लेकर आप
सौराष्ट्र से ५०० धार्मिक बन्धुओं के साथ मार्ग में आनेवाले सिद्धक्षेत्रों की वन्दना करते हुए
यहां पधारे हैं। दो दिन से हमे आप अपनी लोक–कल्याणकारिणी अमृतमयी वाणी का
रसास्वादन कर रहे है। आज इस मंगलबेला में मगध की प्राचीन नगरी राजगृही के
आत्मज्ञान–पिपासु नागरिकों के समक्ष आपके प्रति बहुमान प्रकट करते हुए हम अपने को
गौरवान्वित मानते है।
आत्मार्थिन्!
अनंत दुःखमय संसार की स्थिति का अवलोकन कर आपने उच्चत्तम तत्त्वज्ञान का
अध्ययन एवं मनन किया और उसकी महत्ता से अन्य मुमुक्षु जनों को अवगत कराकर
उनका पथ प्रदर्शन किया। इस विनाशकारी अणुयुग के भौतिक वातावरण के विरूद्ध
आध्यात्मिकता का प्रसार कर आपने सहस्त्रों दिगभ्रांत मानवों का जीवन ही परिवर्तित कर
दिया है। आपकी वीतरागप्रणीत निर्ग्रंथ मार्ग पर द्रढ़ श्रद्धा, आत्मार्थिता, गुणगरिमा,
निःस्पृहता कर्तव्यनिष्ठा और परोपकारपरायणता का मूर्तिमान रूप सोनगढ़ [सौराष्ट्र] है,
जो आपही के कारण आज तीर्थस्थान बन गया है। समस्त सौराष्ट्र में आपने जैन धर्म का
महान उद्योत कर दिया
ફાગણઃ ૨૪૮૩ ઃ ૨૧ઃ