Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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।। श्री वीतरागाय नमः ।।
आध्यात्मिक संत श्री कानजी स्वामी की सेवा में सादर समर्पित
सम्मान पत्र
सन्तप्रवर!
हमारा परम सौभाग्य है कि हम जिस आत्मरस का आस्वादन करानेवाले महान्
आत्मा के पुण्यसम्पर्क की अनेकों वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, हमारी वह मनोकामना आज
सफल हो गई। तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर की वन्दना करने के लिए सोनगढ़ से ५००
धार्मिक बन्धुओं के साथ मार्ग में अनेक सिद्धक्षेत्रों की वन्दना करते हुए आप यहां पधारे है।
आपने अपनी अमृतमयी वाणी द्वारा अनेक आत्मज्ञान–पिपासुओं की प्यास को बुझाया है।
आप का आज बिहार प्रान्त की इस आरानगरी में आत्मज्ञान–पिपासुओं के समक्ष स्वागत
करतें हुए हमें परम हर्ष हो रहा है।
आत्मरसिक!
दुःखमय संसार की स्थिति का अवलोकन कर आपने आत्मतत्त्व के अध्ययन और
चिन्तन द्वारा अनेक मुमुक्षुओं का उद्बोधन कर उन्हें सन्मार्ग पर लगाया है। इस स्वार्थ
और संघर्षवादी युग में स्वार्थ और वैमनस्य तथा संघर्षरूपी नदी में डूबते हुए अनेकोंं
दिगभ्रान्त मानवों का जीवन आपने मानवता के सच्चे साँचे में ढाल दिया है। आप में
अनेक अनुपम गुण विद्यमान हैं, जिनका मूर्तिमान रूप सोनगढ़ है जहाँ जैनधर्म की
उज्जवल पताका फहरा रही है।
आप हमेशां आत्मरस के पान में लीन रहते हैं। आप समान आत्मरसिक का
समागम पाकर आज हम अत्यन्त गौरवान्वित हैं।
सत्पुरुष!
इस भारत वसुन्धरा पर अनेक साधु–सन्त अवतरित हुए। उन्होंने संसार की
नश्वरता और असारता को देखकर आत्मशोधन के मार्ग को अपनाया था। आत्मशोधन
का सच्चा साधन रत्नत्रय है। आपने सांसारिक वैभव और ऐन्द्रियिक सुखों को तिलाञ्जलि
देकर आजन्मब्रह्मचारी रहकर श्रीमद्कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा रचित समयसार आदि ग्रन्थोंं
के अध्ययन से अन्तर्द्रष्टि प्राप्त कर मानव मात्र के कल्याण का प्रशस्त मार्ग दर्शाया है। आप
की इस कल्याणकारिणी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है।
अध्यात्मयोगिन्!
मोह–ममता के जाल से बचने के इच्छुक व्यक्तियों को आप हमेशां अपने आध्यात्मिक
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