जेनामां विकल्पनो अभाव ज छे एवा शुद्ध चैतन्यने लक्षमां लईने एकाग्र थतां विकल्पनो अभाव थई जाय छे. हुं
आ विकल्पनो निषेध करुं–एम विकल्पनो निषेध करवा तरफ जेनुं लक्ष छे तेनुं लक्ष शुद्ध आत्मा तरफ वळ्युं नथी पण
विकल्प तरफ वळ्युं छे, एटले तेमां तो विकल्पनी उत्पत्ति ज थाय छे. शुद्ध आत्म द्रव्य तरफ वळवुं तेज विकल्पना
अभावनी रीत छे. उपयोगनुं वलण अंतर्मुख स्वभाव तरफ वळतां विकल्प तरफनुं वलण छूटी जाय छे.
अभावरूप स्वभाव तो द्रष्टिमां न आव्यो, एटले त्यां मात्र विकल्पनुं उत्थान ज थाय छे. ‘आ विकल्प छे अने तेनो
निषेध करुं’–एम विकल्पना अस्तित्व सामे जोतां तेनो निषेध नहि थाय. पण ‘हुं ज्ञायक स्वभाव छुं’ एम
स्वभावना अस्तित्वनी सामे जोतां विकल्पना अभावरूप परिणमन थई जाय छे. पहेलां आत्मस्वभावनुं श्रवण–
मनन करीने तेने लक्षमां लीधो होय, अने तेनो महिमा जाण्यो होय तो तेमां अंतमुर्ख थईने विकल्पनो अभाव करे.
पण आत्मस्वभावनो महिमा लक्षमां लीधा विना कोना अस्तित्वमां ऊभो रहीने विकल्पनो अभाव करशे!
विकल्पनो अभाव करवो ते पण उपचारनुं कथन छे, खरेखर विकल्पनो अभाव करवो नथी पडतो; पण
अंतरस्वभाव सन्मुख जे परिणित थई ते परिणित पोते विकल्पना अभाव स्वरूप छे, तेनामां विकल्प छे ज नहि
तो कोनो अभाव करवो? विकल्पनी उत्पत्ति थई ते अपेक्षाए विकल्पनो अभाव कर्यो एम कहेवाय; पण ते समये
विकल्प हतो अने तेनो अभाव कर्यो छे–एम नथी.
परिणमन थई जाय छे. त्यां ‘हुं ज्ञायक छुं ने विकार नथी’ एम बे पडखां उपर लक्ष नथी होतुं पण ‘हुं ज्ञायक’
एम अस्ति स्वभावने लक्षमां लइने तेनुं अवलंबन करतां विकारनुं अवलंबन छूटी जाय छे. स्वभावनी अस्तिरूप
परिणमन थतां विकारनी नास्तिरूप परिणमन पण थई जाय छे, स्वभावमां परिणमेलुं ज्ञान पोते विकारना
अभावरूप परिणमेलुं छे. तेने स्वभावनी अस्ति अपेक्षाए ‘सम्यक् एकांत’ कहेवाय, अने स्वभावनी अस्तिमां
विकारनी नास्ति छे–एम अपेक्षाए तेने ज ‘सम्यक् अनेकान्त’ कहेवाय. स्वभावनी अस्तिने लक्षमां लीधा वगर
(–सम्यक् एकांत वगर) एकली विकारनी नास्तिने लक्षमां लेवा जाय तो त्यां ‘मिथ्या एकांत’ थई जाय छे अर्थात्
तेने पर्याय बुद्धिथी विकारना निषेधरूप विकल्पमां एकत्वबुद्धि थइ जाय छे पण विकल्पना अभावरूप परिणमन थतुं
नथी. आथी आत्मस्वभावनुं एकनुं ज सारी रीते अवलंबन करवुं ते ज विकल्पना अभावरूप परिणमननी रीत छे.