Atmadharma magazine - Ank 163
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म २४८३ : वैशाख :
पण तेमां ज्ञान असाधारणधर्म छे, तेना वडे आत्मा लक्षित थाय छे.
जुओ, आ आत्माने शोधवानी रीत! भाई, ‘आत्मा छे’ एम एकला अस्तित्वगुणथी आत्माने
शोधीश तो परथी जुदो आत्मा प्राप्त नहिं थाय. आत्मा अमूर्त छे–एम एकला अमूर्तपणाथी शोधतां पण
वास्तविक आत्मा प्राप्त नहि थाय. पण ‘ज्ञान’ ते आत्मानो असाधारण स्वभाव छे, ते ज्ञानवडे शोधतां, परथी
ने विकारथी जुदा तथा पोताना अनंतधर्मो साथे एकमेक एवा आत्मानी प्राप्ति थाय छे. विकार ते आत्मा–एम
प्रतीत करतां आत्मानुं वास्तविक स्वरूप प्राप्त थतुं नथी, पण ज्ञानस्वरूप आत्मा–एम प्रतीत करतां आत्मानुं
वास्तविक स्वरूप प्राप्त थाय छे. एकेक शक्तिने जुदी लक्षमां लईने श्रद्धा करतां आखो आत्मा श्रद्धामां नथी
आवतो, पण शक्तिवडे शक्तिमान एवा अखंड द्रव्यने श्रद्धामां लेतां आखो आत्मा अनुभवमां आवे छे, ते
सम्यग्दर्शननी रीत छे.
मारे लीधे शरीर हाले–चाले के शरीरने लीधे मने धर्म–अधर्म थाय एम जे माने छे ते खरेखर आत्माना
समानधर्मने मानतो नथी, केम के आत्मामां पोतानुं अस्तित्व छे ने शरीरना परमाणुओमां तेमनुं अस्तित्व छे,
ए रीते बंनेना समान अस्तित्वने न मानतां, बंनेनी एकता मानीने एकना अस्तित्वनो लोप करे छे (–
श्रद्धामां ईन्कार करे छे). वळी, आत्मा अने शरीरनी एकता मानी एटले तेणे आत्माना असमान धर्मने पण
न मान्यो; शरीर तो रूपी जड अने आत्मा चैतन्यस्वरूप–एम असाधारणधर्मथी बंनेना स्वभाव जुदा छे तेथी
बंने जुदा छे,–एम ते मानतो नथी.
ए ज प्रमाणे शरीरनी जेम, कर्मने लीधे आत्मामां विकार थाय एम जे माने छे ते कर्म अने आत्मानी
एकता ज माने छे, केम के ते पण आत्मा अने कर्मना भिन्न भिन्न अस्तित्वने के बंनेना भिन्न भिन्न स्वभावने
खरेखर मानतो नथी, एटले आत्माना समान, असमान धर्मोने ते जाणतो नथी. समान, असमान, तथा
समान–असमान एवा त्रिविध धर्मोनो धारक आत्मा छे,–एवा आत्माने जो ओळखे तो परथी ने विकारथी
भेदज्ञान थईने शुद्ध आत्मानो अनुभव थया विना रहे नहि.
–छवीसमी शक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
मोक्षनी भावना होय तो.
.अंर्त अवलोकन करो
अहो! जेने धर्मनी भावना होय, मोक्षनी भावना होय, ते जीवो आत्माना
स्वभावनुं निरीक्षण करो...आत्मामां अंर्त अवलोकन करो... तेज मोक्षनुं दातार छे,
आत्माना अंर्त अवलोकन विना भवनो अंत आवतो नथी. मोक्षदशा आत्मामांथी
आवे छे माटे आत्मानुं ज शरण करो. रागमांथी मोक्षदशा नथी आवती माटे रागनुं
शरण छोडो. रागनुं शरण छोडीने अंतरमां चैतन्यतत्त्वना शरणे वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्र करवा ते धर्म छे, ने तेनाथी ज भवनो अंत आवे छे.