तो त्यां केवुं चानक चडावीने विरोध करे! पुरुष होय तेनाथी नपुंसकतानी वात सांभळी न जाय,–अंदरथी
झणझणाट करतो नकार आवे.–तेम अहीं पुरुषार्थवंत एवो भगवान आत्मा पुरुष, तेने कोई कुगुरुओ कहे के
‘कर्मो अने काळ तारा पुरुषार्थने रोके’––तो एम कहेनारे आत्माने पुरुषार्थहीन–नपुंसक कह्यो छे. पुरुषार्थी–
आत्मार्थी जीव एवी वात सांभळी शके नहि, तेनो आत्मा पुरुषार्थहीनतानी वात जीरवी शके नहि, अंदरथी
बेधडक नकार आवे; ते वखते तेने एम न थाय के ‘शास्त्रमां शुं कह्युं छे ते जोउं. ’ जेना आत्मामां मोक्ष
माटेना पुरुषार्थनो झणझणाट जाग्यो छे ते पुरुषार्थहीनतानी वात सांभळी शके नहि. ‘कर्मो पुरुषार्थने रोके
अथवा तो गमे तेटलो पुरुषार्थ करवा छतां मुक्ति न थाय’ एवा प्रकारनुं कथन जे कहेता होय ते शास्त्रो
खोटां, ते गुरु खोटा, ते संप्रदाय खोटो,–एवा कुगुरु, कुशास्त्र के कुमार्गने धर्मी जीव आदरे नहि, बेधडकपणे
तेमनी श्रद्धा छोडी द्ये.
झणझणी ऊठयो छे ते जीव ज “पुरुर्षाथवडे भवनो नाश न थाय”–एवी पुरुषार्थहीनतानी वात सांभळी शके
नहि, तेने एम थाय के अरे! आवी पुरुषार्थहीनतानी वात जगतना कोई जीवोने सांभळवा मळशे नहि.
असत्ने छोडी दईशुं तो प्रतिकूळता आवी पडशे ने लोको गांडो गणशे, माटे हमणां आ वात चोकखी न
करवी” –आम जे माने छे ते संयोगनी अनुकूळता खातर आत्माने वेची नांखे छे, तेने खरेखर आत्मानो
महिमा भास्यो ज नथी, सत्नी ओळखाण तेने थई ज नथी; तेने आत्मानो प्रेम नथी पण संयोगनो प्रेम छे,
तेथी ते पुरुषार्थहीनपणानी वातो करे छे. जेने आत्मानो प्रेम जाग्यो छे... जेने पुरुषार्थनो रंग लाग्यो छे...
जेने सत्नो महिमा भास्यो छे तेने तो एम थाय के अरे! त्रण काळ त्रण लोक एक साथे प्रतिकूळ थई जाय
तो पण हुं मारा स्वभावनी रुचि केम छोडुं? जगत भले गांडो कहे–पण हुं सत्ने छोडीने असत्ने केम
आदरुं? संयोग खातर स्वभावने केम वेची नांखुं? अज्ञानी मूढ जीवोनो स्वभाव सत्नो विरोध अने निंदा
करवानो छे, तेमना ऊंधा स्वभावने ते अज्ञानीओ नथी छोडता, तो मारा सवळा स्वभावने हुं केम छोडुं?
स्वभावने कोई संयोगनी के बीजाना टेकानी जरूर नथी. संयोग खातर हुं मारा स्वभावना आदरमां जराय
हीणपत नहीं आववा दउं. मारी चैतन्यसत्ता स्वतंत्र छे, परतंत्र नथी; मारो आत्मा पुरुषार्थवंत छे, नपुंसक
नथी. आत्मार्थी जीवने तो स्वभावनी वात सांभळतां पुरुषार्थनो पानो चडे छे, पण अज्ञानी–मूढजीवो
पुरुषार्थहीन–नपुंसक छे, तेमने स्वभावनी वात सांभळीने पानो चडतो नथी–अंदरथी जोर ऊछळतुं नथी,
तेओ तो पुरुषार्थहीनतामां ज अटकी गया छे. पुरुषार्थ वंत जीवो तो स्वभावनी वात सांभळतां ऊछळी पडे
छे के वाह! आवो मारो स्वभाव!! तेने हवे प्राप्त कर्ये ज छूटको... हवे अमारा पुरुषार्थने जगतमां कोई रोकी
नहि शके... अमारा पुरुषार्थमां हवे कोई विघ्न छे ज नहीं.
नहि... पुरुषार्थ वडे स्वभावनी रुचिनुं पाणी चडयुं ते चडयुं, हवे ते ऊतरे नहि, अल्पकाळमां पोतानुं कार्य
पूरुं ज करे.