Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 23

background image
पंडित बंसीधरजी पोतानी लाक्षणिक
शैलीथी माइक पर पू. गुरुदेवने
भावांजलि अर्पी रह्यां छे ते
समयनुं द्रश्य.
वस्तुनी ‘योग्यता’ बाबतमां आपनुं विवेचन विशिष्ट ढंगनुं छे. योग्यता वस्तुनो स्वभाव छे–एवुं
बतावनार देव–शास्त्र–गुरु साचा छे. उपरछल्ली द्रष्टिवाळाने एम लागे छे के “ आम केम? आम करत तो आम
थात!”–परंतु खरेखर जैनाचार्योनो एवो अभिप्राय नथी.
चरितं खलु धम्मो ते तो मोहक्षोभरहित आत्म–परिणाम छे, अने ते ज धर्म छे. नीचेनी भूमिकामां
रागी प्राणीनी क्रिया–के जेने सराग चारित्र कहेवामां आवे छे–ते मोक्षमार्ग नथी, ते तो ‘संसारक्लेशफलत्वात्’
हेय छे. मोक्षमार्ग तो वीतरागचारित्र छे, परंतु जे घणुं करीने मोक्ष–सुखने नथी चाहतो अने संसारसुखने चाहे छे
ते ज ते पुण्यक्रियाने उपादेय समजे छे, पण ते पुण्यक्रिया–अनुष्ठान मोक्ष आपी देशे–एम हरगीज नथी.
आपनी वात सांभळतां सांभळतां लोकोने एम लागी जाय छे के “बस! ज्यारे जुओ त्यारे मोक्षनी ज
कथा?–आत्मानी ज कथा?” परंतु ए ज तो दुर्लभ छे अने ए ज मतलबनी वात छे. आपणे तो स्वाधीन बनवा
चाहीए छीए. पहेलां द्रष्टिभेद (सम्यग्दर्शन) करो. द्रष्टिभेद थया पछी थोडुंक पण पढवा–लखवानुं सार्थक थशे. अने
अंर्तनी द्रष्टि विना, भले आगमधर होय ने कठिन आचरण पण करतो होय, तो पण ते कंई सार्थक नथी; आवो ज
जैन शास्त्रोनो उपदेश छे.
में आपना प्रवचनोनुं श्रवण कर्युं तेमां मने एवी ज द्रष्टि विदित थई; आपनी वाणीमां तीर्थंकरोनुं अने
कुंदकुंद स्वामीनुं ज हृदय हतुं. तेने अनुसरीने लोकोनी जे प्रवृत्ति थाय ते मुमुक्षुने माटे उपादेय छे. लोको तेने नहि
समजीने कोण जाणे केवा केवा प्रकारना खोटा अभिप्राय करी ल्ये छे?
आपनो प्रचार हाल तो यात्राना निमित्ते थयो छे. यात्रा तो सकुशल थशे ज, परंतु आपनी द्रष्टिथी जे
तत्त्व प्रतिपादित थाय छे ते जगतने माटे कल्याणकारी छे. (–सभामां घणा हर्षपूर्वक तालीनो अवाज)
अंतमां, ते श्रावक–श्राविका अने ब्रह्मचारी वर्ग पण अमारे माटे आदरणीय अने अनुकरणीय छे–के जेओ
आपनी छत्रछायामां रहीने आत्मकल्याण करी रह्या छे.
ः १०ः
आत्मधर्मः १६४