सम्मेदशिखरजीनी यात्रा प्रसंगे–
मधुवनमां श्रीमान पं. फूलचंदजी साहेबनुं
भावपूर्ण संक्षिप्त भाषण
ता. १६–३–प७ फागण वद एकमना रोज मधुवनमां श्रीमान पं. बंसीधरजी
साहेबना भाषण पछी बनारसना पं. फूलचंदजी साहेबे पण संक्षिप्त वक्तव्य द्वारा पोताना
भावो प्रगट कर्या हता, ते अहीं आपवामां आवे छे. तेओ दि. जैन समाजना अग्रगण्य
विद्वानोमां स्थान धरावे छे, एटलुं ज नहि पण “भारतवर्षीय दिगंबर जैन विद्वत्–
परिषद” ना तेओ अध्यक्ष छे. तेमनुं आ भाषण छे.
अमारा पू. पंडितजी (बंसीधरजी साहेब) अमारा गुरुजी छे, तेमणे पू. कानजीस्वामीना संबंधमां घणुं
स्पष्ट कही दीधुं. ज्यारे तेओ बोलवा माटे उभा थया त्यारे तो मने एम लागेलुं के तेओ बहु मर्यादामां रहीने
बोलशे–परंतु आपणे जोयुं के भावना तो मर्यादानुं उल्लंघन करे छे.
महाराजजीना जे प्रवचनो थई रह्या छे ते बाबतमां केटलाक लोकोमां भ्रान्ति फेलायेली छे; हुं कहुं छे के ते
लोको आवीने प्रवचन सांभळे. तेओ एवुं कार्य न करे के जे जनताने सम्यग्ज्ञानना लाभमां बाधक होय!
काल रात्रे जिनमंदिरमां आ लोकोनी भक्ति आपणे सौए देखी; हुं आपने पूछुं छुं के–शुं आवी भक्ति
आपणे कदी देखी छे?
पू. स्वामीजीनी साथे ईंदोरथी हुं संपर्कमां रहेतो आव्यो छुं. हुं आपनी (पू. गुरुदेवनी) अने संघना
सदस्योनी क्रिया, व्यवहार, धार्मिक लगन, भक्ति–जे कांई देखी रह्यो छुं ते उपरथी एक पंडित तरीके–
विद्वत्परिषदना अध्यक्ष तरीके जाहेर करुं छुं के आ लोको पूरा दिगंबर छे– सच्चा दिगंबर छे. धर्मबंधु तरीके
आपणे तेमनुं स्वागत करवुं जोईए अने स्वामीजीना उपदेशनो लाभ लेवो जोईए. आ तरफनी जनता तेमनाथी
परिचित नथी तेथी जनता द्वारा कोई अनुचित प्रवृत्ति न थई जाय ते माटे आपणे परिस्थितिने संभाळी लेवी
जोईए. अमारी ईच्छा छे के ज्यां ज्यां स्वामीजीनुं आगमन थाय त्यां जनता तेमनुं स्वागत करे अने प्रवचननो
लाभ उठावे.
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सागर ना पंडित मुन्नालालजी साहेबनी भावना
मधुवनमां ता. १६–३–प७ फागण वद एकमना रोज पं. बंसीधरजी अने पं. फूलचंद्रजी ए बंने विद्वानोना
भाषण बाद सागर विद्यालयना मंत्री पं. मुन्नालालजी साहेबे पण संक्षेपमां पोतानी भावना व्यक्त करता कह्युं के–
स्वामीजीना विषयमां कोई शंका नथी, ‘दिगंबर जैन विद्यालय–सागर’ नो जे उत्सव अहींनी पावन
भूमिमां संतोना सान्निध्यमां थयो तेने माटे अमे आपना अत्यंत आभारी छीए. भविष्यमां अमारा स्नातको
(विद्यार्थीओ) ने सोनगढ मोकलीने त्यांनी द्रष्टि प्राप्त करवानी अमने प्रेरणा मळी छे.
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आत्मधर्मः १६४