आजथी लगभग सात महिना पहेलां दिल्हीमां अनेक विदेशी विद्वानो (फिलोसोफर) आवेला, ते
प्रसंगे ‘जैन–सेमीनार’ (मेळावडो) योजवामां आवेल. तेमां ‘जैनधर्मना संदेश’ तरीके रजू करवा माटे एक
भाषण मोकलवानी दिल्हीना भाईओनी मांगणी आवेल, ते उपरथी पू. गुरुदेवना प्रवचनोना आधारे जे
भाषण तैयार करवामां आव्युं हतुं ते अहीं प्रसिद्ध कर्युं छे.
– ब्र. हरिलाल जैन
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जैनधर्म ए आत्माश्रित धर्म छे. जैनधर्मनी ए खास विशिष्टता छे के ते दरेक व्यक्तिने पोतपोताथी परिपूर्ण
अने स्वतंत्र दर्शावे छे. आ विश्वमां अनंत आत्माओ छे, तेमांथी कोई पण आत्मा पोते पोतानी शक्तिनो विकास
करीने परमात्मा बनी शके छे. आत्मामां ज्ञान–श्रद्धा–आनंद–पुरुषार्थ–अस्तित्व–नित्यत्व वगेरे अनंत शक्तिओ छे,
तेमां ज्ञानशक्ति मुख्य छे. जेमणे ते ज्ञानशक्तिनी पूर्णता प्रगट करी छे तेओने सर्वज्ञ अरहंत कहेवाय छे. ते
सर्वज्ञदेव पोताना अतीन्द्रियज्ञानवडे आखा विश्वने साक्षात् जाणे छे.
सर्वज्ञदेवे आ विश्वमां जीव उपरांत बीजा पांच जातना द्रव्यो जोया छेः पुद्गल, धर्मास्ति, अधर्मास्ति,
आकाश अने काळ. ए पांचे द्रव्यो ‘अजीव’ छे, तेमनामां ज्ञानशक्ति नथी. ईंद्रियज्ञान द्वारा जे स्थूळ पदार्थो नजरे
पडे छे ते बधाय अजीव–पुद्गलोनुं रूपांतर छे.
आ जीव, पुद्गल वगेरे छ द्रव्यो जगतमां अनादि–काळथी स्वयंसिद्ध छे, तेओ पोताना मूळ स्वरूपे नित्य
“
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” कहीने वर्णववामां आव्युं छे.
‘उत्पाद’ थतां आखो पदार्थ नवो नथी उपजतो, पण तेनी कोई एक हालत तेनी शक्तिमांथी व्यक्त थाय
छे; बीजो कोई तेने उत्पन्न करतो नथी.
‘व्यय’ थतां आखो पदार्थ नाश नथी थतो, पण तेनी कोई एक हालत नष्ट थाय छे; बीजो कोई तेने नष्ट
करतो नथी.
क्षणे क्षणे आवा उत्पाद अने व्यय थता होवा छतां
जेठः २४८३ ः १३ः