Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 23

background image
दरेक पदार्थ पोताना मूळ स्वरूपपणे नित्य टकी रहे छे, तेने धु्रवता कहे छे, बीजो कोई तेने टकावनार नथी.
आव उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यस्वरूप पदार्थोनो जे समूह छे तेना वडे ज आ विश्व रचायेलुं छे. सर्वज्ञ परमेश्वर
आवा विश्वना प्रत्यक्ष ज्ञाता छे, पण सृष्टा नथी. आ विश्वने के विश्वना कोई पदार्थोने ईश्वरे बनाव्या नथी, पण जेम
हता तेम जाण्या छे. जगतमां पहेलां कोई पण स्वरूपे जेनुं अस्तित्व न होय तेनी कदी उत्पति थई शके नहि.–शून्यमांथी
सृष्टि थई शके नहि, माटे ईश्वर कोई पण पदार्थोना सरजनहार नथी. ईश्वर जगतना ज्ञाता छे पण कर्ता नथी.
“ईश्वर” ते सर्वज्ञताने पामेला एक आत्मा छे. आ विश्वमां भिन्नभिन्न अनंत आत्माओ छे. ते आत्मा
निरवधिकाळथी पोताना वास्तविक स्वरूपने चूकीने देवमां ने ढोरमा, नरकमां ने मनुष्यमां अवतार धारण करीने
परिभ्रमण करी रह्यो छे. ते परिभ्रमणमां पोतानी ज्ञानादि शक्तिओ तीव्रपणे हणाई गई होवाथी ते दुःखी छे. ए
दुःखथी छूटवा माटे ज्यारे कोई धन्य पळे एने पोतानुं आत्मस्वरूप समजवानी साची झंखना जागे छे त्यारे,
आत्म–अनुभवी संत तेने तेनुं स्वरूप बतावे छे केः अरे जीव! तारो आत्मा परमात्म शक्तिथी परिपूर्ण छे...तारो
आत्मा ज आनंदनो समुद्र छे; तारा आत्माथी बहारमां क्यांय तारो आनंद नथी, माटे तुं तारा आत्मानी सन्मुख
था.–ए प्रमाणे पोताना स्वरूपने जाणीने तेनी सन्मुख थतां आत्माना परिणमनमां ज्ञान–आनंदनी वृद्धि थती जाय
छे, ने रागादिनी हानि थती जाय छे....अने छेवटे ते आत्मा पोताना परिपूर्ण ज्ञान–आनंदने प्रगट करीने परमात्मा
थई जाय छे. आ रीते स्वप्रयत्न वडे कोई पण आत्मा पामरतानो नाश करीने परमात्मा बनी शके छे.
वर्तमान जैनसाहित्यमां “समयसार” ते आवा परमात्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय बतावनारुं एक
महाशास्त्र छे, अने ते जैनधर्मनी महागीता छे. ते समयसारना रचयिता आचार्य श्री कुंदकुंदस्वामी एक महान जैन
संत (मुनि) हता...तेओ वनमां वसता हता.....ने सर्वज्ञ परमेश्वर सीमंधर भगवानना साक्षात् दर्शन तेमणे कर्या
हता. तेओश्री समयसारनी पहेली ज गाथामां दांडी पीटीने जाहेर करे छे केः अहो जीवो! हुं सिद्ध छुं, तमे पण सिद्ध
छो.....मारा ने तमारा आत्मामां परिपूर्ण प्रभुता भरी छे तेनो तमे उल्लासथी स्वीकार करो.....अनादि काळथी
आत्मामां पामरतानुं स्थापन कर्युं छे ते काढी नांखो ने तमारा आत्मामां प्रभुता भरेली छे तेनी सन्मुख द्रष्टि करो.
सिद्धपणुं ते आत्मिक विकासनी चरम सीमा छे. ते सिद्धपद पामेला परमात्माओने, राग–द्वेष के लक्ष्मी–स्त्री
आदि तो शुं पण शरीर सुद्धां होतुं नथी, ते शरीरादि वगर ज तेओ परम सुखी छे. आ सिद्धपदमां शरीरादि न होवा
छतां आत्मा पोताना ज्ञान ने आनंद सहित नित्यपणे एक ने एक ज टकी रहे छे. संसार अने सिद्ध–बंने
अवस्थाओमां सळंगपणे जो एक ज आत्मा पोते नित्य न टकतो होय तो, ने सर्वथा पलटी जतो होय तो, साधक
पोताना साध्यनी सिद्धिनो आनंद क्यांथी भोगवी शके?–जो क्षणेक्षणे आत्मा सर्वथा बीजो थई जतो होय तो
साधना एक करे ने तेना साध्यने बीजो भोगवे,–पण ए वात कई रीते संभवी शके? साधकदशामां जे आत्मा हतो
ते ज आत्मा नित्य टकीने पोताना साध्यनी सिद्धिना आनंदने निरंतर भोगवे छे.
कोईपण जातना ईंद्रियविषयोना संबंध विना पण परमात्मानुं सुख उत्कृष्ट छे. प्रवचनसार शास्त्रमां
आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहे छे के –
णो सद्हंति सोक्खं सुहेसु परमं त्ति विगदधादीणं ।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ।। ६२।।
सुणी ‘घातीकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे’
श्रध्धे न तेह अभव्य छे ने भव्य ते संमत करे.
–जेमना घाती कर्मो नाश पाम्यां छे तेमनुं सुख सर्व सुखोमां परम अर्थात् उत्कृष्ट छे.–आवुं वचन
सांभळीने जेओ तेने श्रद्धता नथी तेओ अभव्य छे, अने भव्यो तेनो स्वीकार करे छे–आदर करे छे–श्रद्धा करे छे.
आ संसारमां सर्वे जीवो सुखी थवा चाहे छे. ते सुख पोताना आत्मस्वभावमां ज छे. आवा सुख–
ः १४ः आत्मधर्मः १६४