
हता तेम जाण्या छे. जगतमां पहेलां कोई पण स्वरूपे जेनुं अस्तित्व न होय तेनी कदी उत्पति थई शके नहि.–शून्यमांथी
सृष्टि थई शके नहि, माटे ईश्वर कोई पण पदार्थोना सरजनहार नथी. ईश्वर जगतना ज्ञाता छे पण कर्ता नथी.
परिभ्रमण करी रह्यो छे. ते परिभ्रमणमां पोतानी ज्ञानादि शक्तिओ तीव्रपणे हणाई गई होवाथी ते दुःखी छे. ए
दुःखथी छूटवा माटे ज्यारे कोई धन्य पळे एने पोतानुं आत्मस्वरूप समजवानी साची झंखना जागे छे त्यारे,
आत्म–अनुभवी संत तेने तेनुं स्वरूप बतावे छे केः अरे जीव! तारो आत्मा परमात्म शक्तिथी परिपूर्ण छे...तारो
आत्मा ज आनंदनो समुद्र छे; तारा आत्माथी बहारमां क्यांय तारो आनंद नथी, माटे तुं तारा आत्मानी सन्मुख
था.–ए प्रमाणे पोताना स्वरूपने जाणीने तेनी सन्मुख थतां आत्माना परिणमनमां ज्ञान–आनंदनी वृद्धि थती जाय
छे, ने रागादिनी हानि थती जाय छे....अने छेवटे ते आत्मा पोताना परिपूर्ण ज्ञान–आनंदने प्रगट करीने परमात्मा
थई जाय छे. आ रीते स्वप्रयत्न वडे कोई पण आत्मा पामरतानो नाश करीने परमात्मा बनी शके छे.
संत (मुनि) हता...तेओ वनमां वसता हता.....ने सर्वज्ञ परमेश्वर सीमंधर भगवानना साक्षात् दर्शन तेमणे कर्या
हता. तेओश्री समयसारनी पहेली ज गाथामां दांडी पीटीने जाहेर करे छे केः अहो जीवो! हुं सिद्ध छुं, तमे पण सिद्ध
छो.....मारा ने तमारा आत्मामां परिपूर्ण प्रभुता भरी छे तेनो तमे उल्लासथी स्वीकार करो.....अनादि काळथी
आत्मामां पामरतानुं स्थापन कर्युं छे ते काढी नांखो ने तमारा आत्मामां प्रभुता भरेली छे तेनी सन्मुख द्रष्टि करो.
छतां आत्मा पोताना ज्ञान ने आनंद सहित नित्यपणे एक ने एक ज टकी रहे छे. संसार अने सिद्ध–बंने
अवस्थाओमां सळंगपणे जो एक ज आत्मा पोते नित्य न टकतो होय तो, ने सर्वथा पलटी जतो होय तो, साधक
पोताना साध्यनी सिद्धिनो आनंद क्यांथी भोगवी शके?–जो क्षणेक्षणे आत्मा सर्वथा बीजो थई जतो होय तो
साधना एक करे ने तेना साध्यने बीजो भोगवे,–पण ए वात कई रीते संभवी शके? साधकदशामां जे आत्मा हतो
ते ज आत्मा नित्य टकीने पोताना साध्यनी सिद्धिना आनंदने निरंतर भोगवे छे.
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ।। ६२।।